पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१३७

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बगुला के पंख समझकर परन्तु जुगनू की वासना और लिप्सा को पूर्ण रूप से समझकर गोमती को क्रोध हो आया। परन्तु जुगनू को इसकी परवाह न थी। वह पूरी मस्ती से अपनी गज़ल प्रभावशाली लहजे में झूम-झूमकर पढ़ रहा था। और राधेमोहन खूब नाटकीय ढंग से प्रसन्नता और अपनी रसिकता प्रकट कर रहा था। गज़ल समाप्त करके जुगनू ने कहा, 'शायद भाभी को पसन्द नहीं आई।' राधेमोहन ने पत्नी की ओर देखते हुए कहा, 'वाह, वाह, बहुत अच्छी है आपकी कविता।' परन्तु जुगनू इस समय' गोमती की उस खामोशी से ज़रा कुण्ठित हो रहा था, जो उसने अपने पति के छिछोरेपन और वाचालता के मुकाबिले में धारण की थी। यद्यपि वह जान गया था कि वह एक भोलीभाली मूर्ख स्त्री है, पर उसने देखा कि वह अपने पति से अधिक मूर्ख नहीं है । आत्म- चेतन की यत्किचित् भावना उसमें है । गोमती की खामोशी ने जुगनू को अप्रतिभ कर दिया। राधेमोहन ने भी अपनी पत्नी की नाराज़ी को भांप लिया। पर उसे देखा-अनदेखा कर वह हंसने और जुगनू की कविता की तारीफों के पुल बांधने लगा। एकाएक गोमती ने दबे हुए क्रुद्ध स्वर में कहा, 'चुप भी रहो न, बिना बात इतना क्यों हंस रहे हो ?' राधेमोहन की हंसी और वाचालता एकदम गायब हो गई। उसने अपना सिर झुका लिया। और अपने होंठ इस प्रकार फुला लिए जैसे बच्चा डांट खाने पर फुला लेता है। जुगनू ने एक बार छिपी नज़र से गोमती की ओर देखा, पर इस बार गोमती उस नज़र से एकदम क्रुद्ध होकर उठकर तेज़ी से घर के भीतर चली गई। रोधेमोहन' और जुगनू दोनों ही अप्रतिभ हो गए। दोनों ही एक दूसरे को देखने का साहस न कर सके । जुगनू अपनी झेप मिटाने को योंही गुनगुनाने लगा। पर राधेमोहन पत्नी की इस हरकत पर अत्यन्त लज्जित-सा हो रहा था। इसी समय' जुगनू यह कहकर चल खड़ा हुआ, 'अच्छा भई, अब मैं चला ।' चलते- चलते उसने एक बार घर के भीतर फिर नज़र डाली, और पूरी बेहयाई के साथ ज़रा उच्च स्वर में कहा, 'नमस्ते भाभीजी, और चल दिया ।