बगुला के पंख 3 इस घटना के दूसरे ही दिन जुगनू की दावत लाला बुलाकीदास के यहां हुई। लाला वुलाकीदास दिल्ली के पुराने रईस और खानदानी जौहरी थे । दिल्ली की प्राचीन परम्पराएं और मर्यादाएं उनके घर में पालन होती थीं। दावत भी रईसी ठाठ की थी। जुगनू को संगमरमर की मेज़ पर चांदी के बर्तनों में तकल्लुफ की दावत दी जा रही थी। बीसियों किस्म के नमकीन, मिठाइयां अचार, मुरब्बे, चाट, सोंठ और पकवान थे। कई किस्म के रायते थे। लाला वुलाकीदास स्वयं खड़े होकर मेजबानी कर रहे थे । वे बड़े प्रेम से, नम्रता से और मिठास से बारंबार प्रत्येक चीज़ को परसने, दुबारा थोड़ी और लेने का आग्रह कर रहे थे। बड़ी शाहाना दावत थी। ऐसी दावत जुगनू के जीवन में पहली ही थी ! लाला बुलाकीदास की विनम्र भावना को देखकर जुगनू कुछ लज्जित-सा हो रहा था; वह कुछ घबरा भी रहा था। सच पूछा जाए तो उससे कुछ भी खाते-पीते न बन पड़ रहा था । थाल में कोई बयालीस कटोरियां थीं; छोटी-छोटी। सबमें भिन्न-भिन्न खाद्य-पदार्थ थे। चटनी, अचार, मुरब्बे से लेकर दालमोठ, रायता, साग-तरकारी तक । थाल इतना बड़ा था कि बिना खड़ा हुए किनारे तक हाथ पहुंचना कठिन था । जुगनू को यह पता ही न लगता था कि किस कटोरी में क्या है, और उसे कैसे खाया जा सकता है। लाला बुलाकीदास की उपस्थिति और बारंबार यह पूछना कि और क्या चीज़ मंगाई जाए, कौन चीज़ पसन्द है-उसे और भी घपले में डाल रहा था। वह चाहता था एकान्त । परन्तु यहां एकान्त कहां था । वह खा रहा था-भाग्य- भरोसे । सच पूछा जाए तो वह हास्यास्पद बन रहा था । कौन वस्तु कैसे खाई जाए, यह जानना उसके लिए असंभव था । अतः वह पूड़ी का टुकड़ा उठाकर कभी इस कटोरी में, और कभी उस कटोरी में डुबकी लगा मुंह में कौर रख लेता था। एक बार एक कौर में समूचा नीबू का अचार उसने मुंह में रख लिया। और उसे हलक में उतारते उसे नानी याद आ गई। दूसरे कौर में एक पूरा रसगुल्ला ही उसने पूड़ी में लपेट लिया । और तीसरी बार शिमले की एक समूची मिर्च । और चौथी बार बैंगन के भुर्ते को दही समझकर रबड़ी की कटोरी में डाल लिया। दावत चल रही थी, और आंखों में आंसू आ
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