वगूला के पंख १४५ है। कितनी मिठास थी उसकी हंसी में। कितना अच्छा लगता था उसका 'भाभी' कहना, कितनी प्यास थी उसकी चितवन में ! परन्तु, परन्तु, जैसे वह एकाएक चौंक उठी। वह मेरा कौन है ? परपुरुष है, मैं क्यों उसकी ओर देखू । मेरा आदमी तो वह है नहीं। नहीं, नहीं, उसके यहां आने की कोई जरूरत नहीं है । मेरा आदमी जैसा है, वैसा है ; मुझे अन्य किसीकी आवश्यकता नहीं है। यह पहला ही अवसर गोमती के जीवन में था, जबकि उसका नारीत्व और पत्नीत्व अपनी-अपनी रुचि और चाह पर उसके अन्तर में द्वन्द्व कर रहे थे। विचारणीय विषय ऐसे भी होते हैं, यह उसने आज से पहले समझा ही नहीं था। अन्तर्द्वन्द्व अन्ततः खत्म हुआ या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। पर उसने समझा कि खत्म हो गया। उसके पत्नीत्व ने नारीत्व को पछाड़ दिया। उसने मन ही मन निर्णय किया, वह मुंशी मेरा कौन है ? क्यों मैं उसकी बात सोचूं ? अब वह हमारे घर नहीं आने पाएगा। नहीं आने पाएगा। इस प्रकार उसके पत्नीत्व ने उसके नारीत्व को परास्त तो कर दिया, पर परास्त नारीत्व ने विद्रोह करना प्रारम्भ कर दिया। घर के हर कोने में खाते- पीते, सोते, उठते-बैठते हर जगह उसका नारीत्व उंगली पकड़कर जुगनू को उसके सामने ला खड़ा करने लगा, और जुगनू हर बार मुस्कराकर 'नमस्ते भाभीजी' कहकर उसे परेशान करने लगा। कभी वही अश्लील नंगी गज़ल के टूटे-फूटे टुकड़े और उसके बाद वही हंसी-ठहाका, वही वज्र-वक्ष, वही सुडौल दांत, वही सलोनी मूर्ति । गोमती को घर का काम-धन्धा करना दूभर हो गया। सोना, उठना-बैठना कठिन हो गया। उसने देखा, वह परपुरुष उसके नारीत्व की कलाई कसकर पकड़े उसीके घर-आंगन में हंसता हुआ घूम रहा है । और यह सब देख- कर उसका पति निर्लज्ज हास्य कर रहा है । गोमती का पत्नीत्व क्रुद्ध स्वर में कह रहा है, 'अरे नामर्द, कुछ तो शर्म कर । ज़रा मेरा हाथ थाम । मुझे सहारा दे।
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