१४४ बगुला के पंख पिरोना। वह इस कड़े परिश्रम की बचपन से अभ्यस्त थी। गुनगुनाती जाती थी और काम करती जाती थी। संगीत वह न जानती थी, न उसका उसे ज्ञान था। पर मन की नैसर्गिक तरंगों में वह चिड़ियों की चहक के समान चहकती रहती थी। सच पूछा जाए तो वह अपने आपसे अज्ञात थी, अपने स्त्रीत्व से भी और अपने यौवन की भूख से भी। फिर भी उसके जीवन में एक उत्सुकता का पुट था । वह प्रत्येक नई बात को चाव से देखती थी। बहुत कम उसे घर से बाहर निकलने के अवसर मिले थे। बहुत कम वह नये आदमियों के सम्पर्क में आई थी। खासकर गैर मर्दो में तो यह जुगनू ही पहला आदमी था जिसे धकेलकर उसका पति जबर्दस्ती अपनी पत्नी के अधिक निकट लाना चाहता था। जवाब में गोमती ने यद्यपि उसे अपनी नैसर्गिक विरोध-सामर्थ्य से परे धकेल दिया था, पर इस धकापेल में कहीं उसके स्त्रीत्व को जुगनू का पुरुष छू गया। उस स्पर्श को गोमती ने समझा जैसे कोई गन्दगी के छींटे उसकी उज्ज्वल साड़ी पर पड़ गए। इसीसे वह बहुत नाराज़ हो उठी। परन्तु उसकी नाराज़ी का कारण जो ये छींटे थे-उन्हें वह बार-बार देखने लगी, क्रोध से, . क्षोभ से, विद्वेष से। और जब इसी प्रश्न' को लेकर उसके पति से उसका वाद-विवाद हुआ तो वह खीझकर अपने विरोध-विद्रोह को पुष्ट कर उठी। इन सब कारणों से एक बात हुई कि उसकी चेतना में वे छींटे-अभिप्राय यह कि-उस परपुरुष की स्मृति अज्ञात ही में अंकित हो गई। पति के वाग्युद्ध में परास्त होकर घर से भाग जाने के बाद वह निर्द्वन्द्व रूप में सम्बन्ध में सोचने लगी। परन्तु उसका सोचना अब उन सब विरोधी बातों से सम्बन्धित न था, केवल जुगनू के पुरुष-व्यक्तित्व के सम्बन्ध में था। स्पष्ट ही उसके मानस-पटल पर अब तक एक ही पुरुष-मूर्ति थी-राधेमोहन की। और अव उसीके बराबर दूसरी मूर्ति आ खड़ी हुई, जुगनू की। अयाचित भाव से ही उसे दोनों की तुलना करनी पड़ी। उसकी एक ओर पति था, अस्थिर- चित्त, ढीला-ढाला, कोमल, स्त्रैण गुणों से युक्त, जो उसकी ज़रा-सी डांट खाकर उसके तलुए सहलाता था, व्यंग्य सुनकर हंस देता था। दूसरी ओर जुगनू, एक सुडौल, सुदृढ़ शरीर, संयत हास, प्यासी चितवन, विशाल वक्ष । पहली बार उसे भान हुआ कि वह पुरुष, जो स्त्री का आलम्बन है, उसका चरम रूप उसका पति नहीं है । उससे उत्कृष्ट और पुरुष भी हैं। उनमें एक यह मुंशी जुगनू के
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