बगुला के पंख १५५ 'आपका इसमें क्या दोष है ! यहां के वातावरण में विगत युग की बू-बास भरी हुई है । भूले हुए ज़माने की टूटी-फूटी स्मृतियां अज्ञात भाव से ही हमारी चेतना को प्रभावित करती रही हैं । और ऐसे प्रत्येक आदमी के मन में, जिसमें अपनी सूझबूझ की कमी है, विस्मृतियां अपना घर किए बैठी हैं । ऐसे लोगों में न तो इतनी विवेक-बुद्धि है कि वे वस्तु का तुलनात्मक अध्ययन करके उसका सही मूल्यांकन कर सकें, न ही वे नये युग के वैज्ञानिक विकास को कुछ. समझते हैं । बस, वे पुराणपंथी बन जाते हैं।' जुगनू के मुंह पर यह एक करारा तमाचा था, पर उसमें इस तथ्य को भी समझने की योग्यता न थी। उसने कुछ शंकित-से चित्त से कहा, 'आप शायद ठीक कहते हैं । परन्तु नई दिल्ली के विषय में आपके क्या विचार हैं ?' 'वह तो गुलामों का पिंजरापोल है, या कहना चाहिए कि एक शानदार चिड़ियाघर है । जो जानवर जिस खसलत का देखा, उसके लिए उसीकी सुख- सुविधाओं और रहन-सहन के उपयुक्त पिंजरा बनवा दिया।' 'लेकिन इतनी बड़ी-बड़ी इमारतें, बड़े-बड़े शानदार महल, बैंक, इन्स्टी- ट्यूशन ?' 'सब लिफाफा है। दुनिया की नज़रों से यह छिपाने के लिए कि हम भूखे, नंगे और कमज़ोर हैं। जनता टैक्सों के असह्य भार से दबी जा रही है । न उसे ठीक अन्न मिलता है, न जल । सब चीज़ों का अभाव, सब बातों की अव्यवस्था । यह आज की दिल्ली शहर नहीं है, आदमियों का जंगल है। छोटे से बड़े तक प्रत्येक को अपनी असुविधाओं की शिकायत है। परन्तु हमारी स्वदेशी सरकार विदेशी मेहमानों की नज़रों में छोटा नहीं बनना चाहती। वह शहर के लोगों की भूख और तकलीफों पर परदा डालकर इन इमारतों-बैंक-बिल्डिंगों और चमचमाती सड़कों की शान दिखाकर उनपर अपना रुपाब डालना चाहती है।' 'आपके कहने का मतलब शायद यह है कि नई दिल्ली में भारत के दर्शन नहीं होते ?' 'कहां होते हैं ? कहीं दीख पड़ी आपको वहां दरिद्रता की कोई झलक, आधे पेट भोजन करनेवाले, फटे कपड़ों से अपनी शर्म ढकनेवाले, जिनसे यह समूचा भारतवर्ष पटा पड़ा है ? वहां तो आप शानदार दूकानें देखेंगे-विदेशी शृंगार और सजावट के सामानों से भरी हुई। एक से बढ़कर एक फैशनपरस्त तितलियों-सी
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