पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१५९

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बगुला के पंख १५७ जाते हैं । बशर्ते भूख और अभाव उन्हें इससे पूर्व ही मौत के सुपुर्द न कर दें।' जुगनू अभिभूत-सा होकर परशुराम की बातें सुन रहा था। ये बातें उन बातों से भिन्न प्रकार की थीं, जिन्हें वह अपने दोस्त नवाब या शोभाराम से सुना करता था। उसने कभी तस्वीर के इस रुख पर ध्यान भी नहीं दिया था । और अव परशुराम की बातें उसके दिल पर हथौड़े की चोटें कर रही थीं। परशुराम ने फिर कहा, 'जाने दीजिए नई दिल्ली को। आप तो इस वक्त पुरानी दिल्ली के प्रमुख नगरपिता हैं। क्या आपने नहीं देखा कि रात को दो लाख नर-नारी पटरियों और सड़कों पर सोते हैं ? जिनका न घरबार है न ठिकाना । गर्मी में तो खैर जो जहां पड़ जाए गनीमत है, पर सर्दी और बरसात में इनपर कैसी बीतती होगी, क्या आपने इसके विषय में सोचा ?' 'मेरे सामने तो अभी ऐसी कोई शिकायत नहीं आई।' 'अर्थात् अाप इस वात से बिलकुल वेखबर है कि नगर में कितने लोग बेघरबार हैं ?' 'हो सकता है काफी हों, पर सबको मकान दिए कहां से जा सकते हैं साहब ! आपको यह तो मालूम ही है कि पार्टीशन के वाद शरणार्थी लोग बुरी तरह दिल्ली में भर गए हैं।' 'तो आप उन्हें दिल्ली से निकाल बाहर करने की चिन्ता में हैं ?' 'नहीं-नहीं, धीरे-धीरे सभी बन्दोबस्त होगा।' 'परन्तु मैं उन शरणार्थियों की बात नहीं कहता जो पटरियों पर अपने- अपने घोंसले बनाकर पुरुषार्थी बन गए हैं । मैं तो उन मज़दूरों और भिखारियों की बात कहता हूं जो दिल्ली में ही मुद्दत से रहते हैं, और जिनके पास खड़े होने का भी ठिकाना नहीं है।' 'परन्तु नई दिल्ली में तो आपको शायद ये सब दृश्य देखने को नहीं मिल सकेंगे। 'इसीसे मैं नई दिल्ली से घृणा करता हूं। वहां गरीबों को रहने की कोई गुंजाइश ही नहीं है। सब विदेशी प्रभाव-कुछ मुगल हरम की शान-शौकत और कुछ अंग्रेज़ियत की तड़क-भड़क । यद्यपि वहां के सब क्लर्क अफसरों के गुलाम हैं, पर कहलाते हैं साहब लोग ही । साहबों की भांति वे रहते, खाते-पीते हैं । सिर्फ रंग से लाचार हैं । जब ये काले साहब लोग नई दिल्ली के सार्वजनिक