१६२ बगुला के पंख उसे उस समय एक स्त्री-शरीर की आवश्यकता थी। हो सकता था कि उसे इस समय कोई स्त्री मिल जाए तो उसका गला घोंट दे । उसके चिथड़े-चिथड़े करके चीर डाले । उसका सम्पूर्ण पशुत्व जैसे उन्मत्त हो उठा था। खैरियत इतनी ही थी कि अंधेरा हो उठने के कारण उसे किसीने देखा नहीं, किसीका ध्यान उसकी अोर न था। वास्तव में डा० खन्ना, परशुराम और राधेमोहन के अतिरिक्त और किसीसे उसका परिचय न था। पर ये सभी इस समय अपने- अपने मनोरंजन में लगे थे। बहुत बार उसका मन हुआ कि किसी खण्डहर की चोटी पर चढ़कर नीचे कूद पड़े। या अपने शरीर को दांतों से काटकर क्षत- विक्षत कर ले। वह तेजी से घूम रहा था। बड़ी देर तक वह उसी प्रकार चक्कर काटता रहा । गाना-बजाना समाप्त हो गया। सब लोग लौटने की तैयारी करने लगे। जुगनू भी लौटा, इसी समय उसने देखा, शारदा अकेली ही जा रही है। एक बार उसने भली भांति सावधानी से चारों ओर देख लिया, आसपास कोई न था । उसने भर्राए गले से कहा, 'शारदा, एक बात सुनती जायो ।' शारदा ने लौटकर जुगनू की ओर देखा। वह मुस्करा उठी। उसे आज अभी तक उससे बात करने का अवसर ही नहीं मिला था। उसने हंसते हुए कहा, 'मुंशी, आखिर तुम यहां दिखाई पड़ ही गए । तुम बड़े खराब आदमी हो मुंशी, बहुत दिनों से तुम कभी हमारे घर नहीं आए।' अभी शारदा के ये शब्द उसके मुंह में ही थे, कि जुगनू ने लपककर उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। शारदा ने देखा कि वह हाथ आग के अंगारे की भांति जल रहा है। वह कांप रहा है । शारदा का हास्य गायब हो गया। उसने कहा, 'यह क्या ? क्या तुम्हें बुखार है मुंशी ?' उसकी नज़र जुगनू की आंखों पर गई, जो हिंसक पशु की भांति चमक रही थीं। उसने खींचकर अपना हाथ छुड़ा लिया और भय और आशंका से भरी हुई जुगनू का मुंह तकने लगी। किसी नैसर्गिक ज्ञान से उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह किसी हिंस्र आक्रमण के सन्निकट है। परन्तु वह कुछ भी न समझ पा रही थी। वह अपनी काली-काली निर्दोष अांखें जुगनू के मुंह पर जमाए हुए थी, जो बादलों में दामिनी की भांति चमक रही थीं। संयत होकर जुगनू ने कहा, 'मैं मैं तुम्हारे लिए एक उपहार लाया हूं।'
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