बगुला के पंख ५४ विद्यासागर ने छूटते ही लाला फकीरचन्द के मुंह पर तमाचा जड़ा। उसने कहा, 'क्यों लाला, जिस थाली में खाते हो उसीमें छेद करते हो। शर्म आनी चाहिए।' लाला फकीरचन्द हक्का-बक्का हो गए। मुनीम-गुमाश्ते इस लट्ठ के समान उजड्ड और सांड के समान मज़बूत आदमी को देखने लगे। मैले कपड़े, मैला रंग, बढ़ी हुई हजामत । कोरे गुण्डे जैसी सूरत । पर चेहरे पर एक विचित्र गम्भीरता और दृढ़ता । लाला फकीरचन्द ने कहा, 'तुम कौन हो भई और किस नीयत से मेरे घर आकर गालियां दे रहे हो ? तुम्हें यहां आने किसने दिया?' 'मैं तो जहां जाता हूं, अपनी मर्जी से ही जाता हूं, किसी दूसरे से पूछकर नहीं।' 'दरबान ने नहीं रोका ?' 'उसकी क्या शामत आई थी ? छः महीने हल्दी-गुड़ पीना पड़ता लाला।' 'देखता हूं, तुम हवा से उलझते हो । सिर्फ लड़ने ही के लिए आए हो।' 'लाला लोगों की बुद्धि नहीं होती, पर मेरे आने का कारण तुमने ठीक समझ लिया।' 'लेकिन मेरा तुमसे क्या लेना-देना है।' 'मैं अपने लिए लड़ने नहीं आया, कांग्रेस के लिए आया हूं।' 'मैं क्या कांग्रेस की धौंस में रहता हूं ?' 'नहीं तो कहां रहते हो, कांग्रेस के राज में चोरबाजारी करके लाखों रुपये नहीं कमा रहे !' ‘कमा रहे हैं, तो तुम्हारा उसमें कुछ साझा है ?' 'मेरा नहीं, मुल्क का साझा है । खाने-पीने से 'वचा सब रुपया देश का है। लाला, तुम उसे अपनी तोंद में छिपाकर नहीं रख सकते ।' 'भई, अजब बेतमीज़ हो, कहता हूं तमीज़ से बात करो।' 'चोरबाज़ार की कमाई पर गुलछरें उड़ानेवालों और जी० बी० रोड के कोठों पर रातें बितानेवालों के सामने किसी देशभक्त को तमीज़ से बात करने की क्या परवाह है !' 1
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