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पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१८६

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१८४ बगुला के पंख डालकर विद्यासागर ने आहिस्ता से कहा, 'कल रात को मुंशी से मिलना होगा लाला।' 'मिल लेंगे, मुंशी तो हमारे जिगरी दोस्त हैं, प्यारे हैं। पर मुलाकात कहां होगी ?' 'चैम्सफोर्ड क्लव में, नौ बजे । भूलना नहीं।' 'वाह भूलने की भी एक ही कही।' 'तो मैं चला।' 'यह क्या बाबू साहब, तुमने नहीं, नहीं, आपने तो कुछ खाया-पिया भी नहीं। चाय-वाय तो पित्रो।' 'चाय' रहने दीजिए। सिर्फ मेरा नाम याद रख लीजिए । मेरा नाम विद्या- सागर नियोगी है।' 'बहुत अच्छा नियोगी साहब, जय रामजी की।' फकीरचन्द ने उठते हुए कहा । पर विद्यासागर इसकी बिना ही परवाह किए चलता बना। इस बातचीत के दूसरे ही दिन जनसंघियों का एक विराट जलसा रामलीला ग्राउण्ड में हो रहा था । जनसंघ ने अपने पांच उम्मीदवार खड़े किए थे। तीन लोकसभा के लिए, और दो राज्यसभा के लिए। जिनमें तीन लाला लोग थे। सबसे मोटे आसामी लाला फकीरचन्द थे। जलसे में बड़ी भारी सरगर्मी थी। हज़ारों बत्तियों के प्रकाश से विराट सभा-भवन जगमग कर रहा था। इस जलसे की शोभा बढ़ाने को स्वयं गुरुजी आए थे। और भी बड़े-बड़े हिन्दू नेता थे, जिनके गर्जन-तर्जन से सभामंच थरथरा रहा था । परंतु सबसे ज़बर्दस्त प्रभावशाली भाषण हुआ पण्डित गोपाल मालवीय का। मालवीयजी का पुराना पुण्यपूत नाम, ब्राह्मण की शुद्ध नैष्ठिक धज, धोती, चपकन, दुपट्टा और माथे पर बड़ा-सा तिलक, जैसे साक्षात् महामना का अवतार हों। भाषरण धीरे-धीरे शुरू हुआ। और क्षण-क्षण में गर्जन-तर्जन में परिवर्तित होता गया। पहले भारतवर्ष की प्रशस्ति गाई गई. । गीता और महाभारत के श्लोक पढ़े गए। फिर मुस्लिम