बगुला के पंख १८५ th आक्रान्ताओं, मुस्लिम राज्यों, मुस्लिम अत्याचारों की बढ़-चढ़कर सूची पेश की गई । हिन्दू धर्म, हिन्दू जाति के प्रति गहरी आस्था प्रकट की गई और उत्तेजना के बढ़ते हुए वातावरण में चर्चा शुरू हुई विभाजन की, पाकिस्तान की, शरणार्थियों की, कत्लेआम की । रोमांचकारी दृश्य', खून को खौला देनेवाले प्रकरण, सिहरन पैदा करने वाले विवरण, सब एक मंजे हुए वक्ता के मुंह से मशीनगन की गोलियों की भांति निकलते आ रहे थे। लोग सन्नाटा खींचे सुन रहे थे। क्षण-क्षण में तालियां गड़गड़ा रही थीं और जनसंघ के उत्तेजक नारे लगाए जा रहे थे। वक्ता भाषण करते-करते मंच पर ही रो पड़े--लाखों निष्कासितों के करुण पलायन, बलात्कार, कत्लेआम का वर्णन करते हुए। और उनके साथ हज़ारों अांखें भी गीली हो रही थीं। भाषण नहीं था पिघला हुआ शीशा था, जो एक लाख से भी अधिक नर-नारियों के कानों में उंडेला जा रहा था। धीरे-धीरे भाषण का उपशमन हुआ। वक्ता फिर शान्त भाव से मंच पर बैठ गए। अपनी सफलता पर उन्हें गर्व था। जय-जयकार का तुमुल हर्षनाद, तालियों की गड़गड़ाहट । वज्र-गर्जन के समान सम्मिलित कण्ठों के नारे, सब मिलकर एक अजब समां बांध रहे थे । और उसी समय खड़े हुए गुरुजी । भव्य मूर्ति, अटपटी-सी दाढ़ी, दुर्बल तन, गेरुया परिधान, त्याग-तप की मूर्ति, संयत स्वर में जैसे पूर्ववक्ता के भाषण का उपसंहार कर रहे थे। उनके भाषण के बाद उम्मीदवारों का प्रदर्शन किया गया। नाटक के अभिनेताओं की भांति पांचों उम्मीदवार विचित्र भाव-भंगी से मंच पर खड़े बारम्बार जनता को झुक-झुककर अभिवादन कर रहे थे । और जनता तालियां बजाकर संतोष और हर्ष प्रकट कर रही थी। पर यह हर्ष भाषण का प्रभाव था, या इन जन-प्रतिनिधियों के चुनाव की पसन्द का, यह जनता नहीं जानती थी। जानते थे केवल जनसंघी नेतागण, जिन्हें भाषणों का वज़न मालूम था।
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