१८ बगुला के पंख बैठे उसने सिगरेट का पूरा पैकेट फूंक डाला। चारों ओर बिजली की बत्तियां जगमगा रही थीं। इधर-उधर नर-नारी आ-जा रहे थे। हठात् उसके मन में धारणा हुई कि क्या यह भी सम्भव है कि उसे पद्मा जैसी पत्नी मिल जाए, शोभाराम के जैसा उसका घर हो, और वह उसी तरह रहकर अपना शेष जीवन व्यतीत करे जैसा शोभाराम करता है। उसकी चेतना में एक प्रबल आकांक्षा ने चोट करनी प्रारम्भ कर दी। अब साहस और स्थिरता उसके मन में आ रही थी। वह कह रहा था- अब तो नाव नदी में डाल दी गई है, इसे बहने दिया जाए। कौन यहां उसे पहचानने आएगा और कौन उसे भंगी कहेगा। परन्तु स्वयं उसका मन ही उसे भंगी कह रहा था। उसने एक झटका देकर अपने मन को रोका । उसके मुंह से शब्द निकले, 'कौन, कौन मुझे भंगी कहता है ? मैं हूं मुंशी जगनपरसाद ।' वह उठा और घर की ओर चला। ५ खाने-पीने से निवृत्त होकर शोभाराम ने सिगरेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, 'अब बताओ मुंशी, क्या इरादा है ?' 'भाई साहब जैसा कहें।' 'तो दिल्ली में रहने का इरादा पक्का है ?' 'जी हां, मगर कोई अच्छी-सी नौकरी मिलनी चाहिए।' 'कैसी नौकरी ?' 'कैसी भी,' जुगनू घबरा गया । वह भला क्या नौकरी कर सकता था। बैरा या खानसामा-खिदमतगार की नौकरी । वह शोभाराम का मुंह ताकने लगा। 'तुमने क्या कोई नौकरी की है ?' 'न,' जुगनू ने झूठ बोला। 'तो अब तक क्या करते रहे हो ?' 'यही कोई छोटा-मोटा धन्धा, गंवई-गांव में।' 'गांव में क्या तुम्हारी कुछ ज़मीन-जायदाद भी है ?'
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