पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बगुला के पंख १७ आते ही रहते थे । और बहुधा उसे अकेले ही उनका प्रातिथ्य करना पड़ता था। उसने अधिक आग्रह नहीं किया। वह चली आई। परन्तु और एक घण्टा बीत गया, पर शोभाराम अभी तक नहीं आए । तब पद्मादेवी चाय और नाश्ता लेकर फिर जुगनू के पास गई और ट्रे टेबल पर रखकर कहा, 'पता नहीं वे कब आएं, आप चाय पी लीजिए और मन हो तो तनिक टहल आइए । खाना नौ बजे तैयार हो जाएगा।' जुगनू ने कोई उत्तर नहीं दिया । वास्तव में वह समझ ही नहीं पा रहा था कि ऐसे अवसरों पर कसा शिष्टाचार प्रदर्शित करना चाहिए। वह चुपचाप संकोच-भरे नेत्रों से एक बार पद्मा की ओर देखकर चुप रह गया। पद्मादेवी चली गई। जुगनू ने चाय पीकर फिर सिगरेट जलाई । पद्मा की मूर्ति इस समय उसके मानस-नेत्रों में घूम रही थी। वह अपने भूत-भविष्य' पर भी विचार कर रहा था। परन्तु उसे सबसे बड़ा भय' इस बात का था कि कहीं उसका भंडाफोड़ न हो जाए और वह भंगी है, यह प्रकट न हो जाए। अचानक उसे स्मरण हो आया, पद्मा ने कहा था कि वह ज़रा टहल आए । वह उठा और चुपचाप बाहर निकल गया। बाहर जाने की उसने पद्मा को सूचना भी नहीं दी। अब वह स्वच्छ खद्दर के कुर्ते और पायजामे में एक सभ्य, शिष्ट पुरुष दीख रहा था। परन्तु जूता उसका बहुत गन्दा और पुराना था। उसकी जेब में केवल तीन रुपये थे, कुछ रेजगारी भी थी। वह घूमता हुअा बाजार तक चला आया और एक सस्ता-सा जूता खरीद लिया । पुराना जूता उसने वहीं फेंक दिया। बहुत देर तक वह इधर-उधर घूमता रहा। रह-रहकर उसका अपना गांव का घर, वहां की गन्दगी, चारों ओर घूमते हुए सुअर, और उनके बीच खिलते- रोते उसके भाई-भतीजे उसकी आंखों में घूमते, फिर सबके ऊपर पद्मा की मोहिनी मूर्ति, शोभाराम का सभ्य', शिष्ट घर, और उस घर में इस प्रकार आत्मीय की भांति व्यवहार उसकी चेतना को आहत कर रहे थे। सोचते-सोचते कभी उसका कलेजा धड़कने लगता, कभी वह घबरा उठता, कभी उसका मन कहता, साहस कर और देख-भाग्य' कहां ले जाता है । घूमता हुआ वह फिर लालकिले के सामने के मैदान में आ गया। हरी- हरी घास पर वह बैठ गया। धीरे-धीरे उसने अपने चित्त को स्वस्थ किया, बैठे-