बगुला के पंख २०७ 'जब घर का समझती हो तो इसे रख लो। दूसरी बात क्यों सोचती हो ?' गोमती के हाथों में पर्स था और पर्स से भरा हुआ हाथ जुगनू की मुट्ठी में था । मुट्ठी कांप रही थी, और गोमती का हाथ भी पसीने से भीग गया था। उसने कहा, 'ना, ना, रहने दो।' 'अब तो कसम लग चुकी । न लोगी तो मैं मर जाऊंगा।' 'राम, राम, ऐसी बात कही जाती है ?' 'तो मुझ दुखी को दुखी मत करो, चुपचाप रख लो और भाई साहब से मत कहना।' गोमती ने और हठ नहीं किया । पर्स लेकर चली गई। इस समय उसका सारा शरीर पीपल के पत्ते की भांति कांप रहा था। क्यों भला ? अब इस क्यों का उत्तर अपने मन से पूछिए । चुनाव का आन्दोलन पूरा ज़ोर पकड़ने लगा । लाला दीवानचन्द ने बिरादरी की धर्मशाला में सारी बिरादरी को एकत्र किया। सारी धर्मशाला फर्श, कालीन और मसनदों से सज गई । बिरादरी के बड़े-बड़े पेटवाले महाजन मसनदों पर आ बैठे । सब अपनी-अपनी हांक रहे थे। सारा वातावरण एक बेतरतीब शोरगुल से भरा हुआ था। लाला दीवानचन्द बिरादरी में एका करने पर बल दे रहे थे। कांग्रेस मुल्क पर राज करती है, हमारी बिरादरी इस राज्य में सारे मुल्क में व्यापार करके लाखों रुपया कमा रही है। बोलो महात्मा गांधी की जय ! गांधीजी के हत्यारों का बेड़ा गर्क हो । जनसंघ मुर्दाबाद ! जो जिसके जी में आता था चिल्ला रहा था। एक भारी-भरकम चौधरी ने खड़े होकर कहा, 'लाला फकीरचन्द, बिरादरी की कृपा से कांग्रेस की कुर्सी पर बैठोगे। कुछ बिरादरी के लिए भी तो करो।' लाला फकीरचन्द ने हाथ जोड़कर कहा, 'मैं तो सबका दास हूं। मेरा सर्वस्व आपका है । आप जो आज्ञा करें, वही पूरा करूंगा।' चौधरी ने कहा, 'धर्मशाला का फर्श बनवाओ और हज़ार रुपये के बर्तन पंचायत को दो।
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