२१० बगुला के पंख भाषण, चन्दा-ग्रहण-निपुणा, कांग्रेस-पूता, खद्दरधारिणी दिव्य' देवियों की जय ! विद्यासागर के अनेक गण थे। गणों में कुछ गणी भी थीं। इस समय व्याकरण-विस्मरण हो गया है । गण का स्त्रीलिंग याद नहीं आता । अतः गणी ही कहता हूं । हां, तो एक गणी का नाम था विभा। कॉलेज की बी० ए० की मंज़िल पर पहुंच लौट आई थी देशसेवा करने। अभी कुमारी थी, योग्य पति नहीं मिला था । आयु तीस थी या पैंतीस ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। पर थी उम्र-चोर, अभी छोकरी ही मालूम देती थी। थी खुशमिज़ाज, हाज़िर- जवाब । स्वच्छन्द वायु के झोंके के समान जहां पहुंचती, झाड़-झंखाड़ को हटा अपना स्थान बना लेती। जब भाषण देने खड़ी होती तो हाथ भर हलक खुल जाता और उसमें त्रिलोक के दर्शन हो जाते थे। खद्दर की बगुला के पंख के समान अमल-धवल साड़ी, वैसा ही जम्पर और कंधे पर एक झोला । पैरों में एक चप्पल, जो आवश्यकता पड़ने पर शूल, शक्ति, गदा, कृपाण सभीका काम देती थी । मुंह की फाड़ ज़रा चौड़ी, बस हजारों की भीड़ में भीषण भाषण के सर्वथा उपयुक्त। दूसरी थीं शक्तिभारती। इनका असली नाम कोई नहीं जानता था, पर मुद्दत से यही नाम प्रसिद्ध था। पूर्वजन्म के समान इसका पूर्ववृत्त भी अज्ञात था । आयु चालीस के पेटे में थी। डीलडौल मर्दाना था। इनका कहीं कोई मर्द था भी या नहीं, इसपर लोगों के अनेक मत थे। कोई कहता था, अब भी है। कोई कहता था, अब नहीं है। कोई कहता था, कभी न था। कोई कहता था, एक है । कोई कहता था, अनेक हैं । जो हो, बजाहिर वे सब मामलों से बेबाक थीं। पेशा था कांग्रेस-आंदोलन और जेल जाना-माना। सभा-सोसाइटियों में स्त्री- स्वयंसेविकाओं को बटोरना, उन्हें अनुशासन में रखना, नेताओं से परामर्श करना, सर्वसाधारण को देशभक्त न होने के कारण डांटना, फटकारना, लानत- मलामत देना, कांग्रेस के लिए भले-बुरे का कुछ भी विचार न कर सब कुछ उचित समझकर सभा-सोसाइटियों में सबसे आगे बैठना। ये दोनों थीं महागणी, इनके साथ गणियों की गड्डी की गड्डी सदा नत्थी रहती थी।
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