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पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२१४

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२१२ बगुला के पंख दो। अब बाकी का प्रबन्ध भारतीजी पर रहा।' 'हो जाएगा। मैं नई दिल्ली से पांच सौ औरतें जुटा लूंगी। पर रुपया उसमें भी इतना ही खर्च होगा।' 'दस रुपये फी औरत?' 'वे कोई चलती-फिरती कॉलेज की छोकरियां नहीं होंगी । बड़े-बड़े घरों की औरतें होंगी। उनके जुलूस में शरीक होने से शहर में तहलका मच जाएगा। एक-एक औरत कांग्रेस की जर्नल-कर्नल बन जाएगी।' 'खैर, तो रुपये के लिए काम नहीं रुकना चाहिए।' 'अब एक बात और रह गई।' भारती ने ज़रा तेवर संभालकर कहा । 'क्या ?' 'आठ-दस लड़कियां हमें चुनाव तक नौकर रखनी होंगी। बिना उनके मर्द आसानी से वोट नहीं देंगे।' 'ठीक है, मगर होवें ज़रा नई उम्र की और खूबसूरत, साथ ही शोख भी कि आदमी का दिल देखते ही लोटपोट हो जाए। यह काम विभाजी ही के बूते का है।' 'हो जाएगा। पर प्रत्येक को भोजन, नाश्ता और दो सौ रुपये माहवार देना होगा। 'पर कहलाएंगी तो स्वयंसेविका ही न ?' 'हां, हां, वे क्या अपनी इज़्ज़त का ख्याल न रखेंगी ? दुनिया में नौकरी का ढोल पीटेंगी ? सब बड़े घरों की लड़कियां होंगी।' 'बड़े घरों की लड़कियां मिल भी जाएंगी तनख्वाह पर ?' 'कमाल करते हैं आप । आजकल बड़ों की बड़ी ही पोल होती है। उनसे लड़कियों का कॉलेज का खर्चा भी नहीं चलता। फिर उनके ऊपरी खर्चे हैं। सहेलियों को रेस्तरां में पार्टी देनी होती है, सिनेमा देखना-दिखाना पड़ता है, फिर तेल-कंघा, लिपस्टिक और शौक के हजार खर्चे हैं। ये सब कहां से चलते हैं ?' 'अब इन बातों की छानबीन से आपको क्या मतलब, आप काम की बात कीजिए।'