बगुला के पंख २१७ ६६ जुगनू का ज्वर से पिण्ड छूट गया। परन्तु अभी कमज़ोरी है । चुनाव- आन्दोलन जोर पकड़ता जा रहा है। विद्यासागर का सुझाव है कि अब वह अपने घर चले, तभी सब बातों का सुभीता हो सकता है । बहुत सलाह-मशविरा करना है, चुनाव की तिथि निकट पाती जा रही है। लेकिन जुगनू कोई जवाब नहीं देता है । उस छोटे-से कमरे में वह बहुधा अपनी चारपाई पर या तो सोता रहता है, या पड़ा-पड़ा छत को ताका करता है। वह राधेमोहन से बहुत कम बातें करता है। राधेमोहन अब चाहता है कि वह चला जाए । परन्तु स्पष्ट है कि जुगनू के मन में जाने की बात ही नहीं है। राधेमोहन घुटा-चुटा रहता है । कभी वह मन ही मन अपनी मूर्खता पर पछताता है । कहां की इल्लत बांध लाया मैं ; वह बहुत बार अपने मन से कह चुका है । जुगनू से भी अब वह अधिक बात नहीं करता । उसका मन होता है कि वह कह दे, 'अब अच्छे हो गए, यहां क्यों पड़े हुए हो, जानो यहां से ।' पर यह कहने का उसे साहस नहीं होता है। इसके अतिरिक्त एक बात और है, उसकी पत्नी को अब जुगनू के वहां रहने में कोई शिकायत नहीं है। सबसे बड़ी तकलीफ मकान की है। गर्मी का मौसम आ गया है। घर में सोने का एक ही कमरा है, वह जुगनू हथियाए बैठा है । पति-पत्नी को रसोई में सोना पड़ता है । वड़ा कष्ट है, बड़ी असुविधा है। गर्मी बढ़ती जा रही है, असुविधा भी बढ़ती जाती है। परन्तु गोमती को कोई शिकायत नहीं है । वह जुगनू की सभी ज़रूरतें यत्न से पूरी करती है । उकताहट या ऊब उसकी किसी चेष्टा में प्रकट नहीं है। राधेमोहन चाहता है कि उसकी स्त्री अब उससे इस बात पर लड़े, कलह करे कि क्यों नहीं जुगनू को घर से निकालते, यह बात जुगनू सुने, और स्वयं चलता बने ; पर उसकी स्त्री को तो जैसे कोई शिकायत ही नहीं है। क्यों साहब, क्या बात है, वह अव उससे कहीं अधिक जुगनू की आवश्यकताओं का ख्याल रखती है। परन्तु क्यों ? यह प्रश्न राधेमोहन जैसे मूर्ख के मन में भी दिन में दस-बीस बार उठते-उठते, अब तो प्रतिक्षण उठता रहता है । वह बहुत बारीकी से दोनों की नज़रों को भांपता है, पर नतीजा कुछ नहीं हाथ आता। जुगनू न कभी गोमती से बात करता है,
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