पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२० बगुला के पंख हां, तुम्हें रुपये-पैसे की तकलीफ हो तो कह देना।' 'बस खाली हाथ हूं भाई साहब ।' 'तो कल एक महीने की तनख्वाह पेशगी दिला दूंगा । अपने कपड़े-लत्ते तथा आवश्यक समान जुटा लेना । हंसी आती है यार, तुम्हारी उस पतलून पर । भला यह भी पतलून पहनने का वक्त है । बगुले के पर के समान खद्दर में तुम कितने अच्छे लगते हो !' जुगनू ने कोई जवाब न दिया। शोभाराम ने उसे उसका कमरा दिखाया और उठकर आराम करने चला गया। , ६ बम्बई वाली मेम साहब की नौकरी और सोहबत' का लाभ अब जुगनू ने यहां लिया। प्रबन्ध, व्यवस्था और प्रत्येक वस्तु को करीने से सजाने की जो आदत उसे उस नौकरी में पड़ गई थी, वह यहां काम आई। कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में पूरी अन्धेरगर्दी थी। हफ्तों वहां झाड़ नहीं लगती थी, न सफाई होती थी। कागज़, अखबार, पुस्तकें, रसीदें, चिट्ठियां सब इधर-उधर मारी-मारी फिरती थीं। कोई उन्हें संभालकर रखनेवाला न था। दफ्तर में केवल एक चपरासी था। वह बहुत बूढ़ा और सुस्त आदमी था। वह बैठा-बैठा ऊंघता रहता या कभी-कभार सेक्रेटरी के कहने से कोई कागज-पत्र इधर से उधर ले जाता या डाक में चिट्ठियां छोड़ देता था। शोभाराम का भी इधर कोई ध्यान न था । वह एक परिश्रमी और ईमानदार आदमी था। पर उसका स्वास्थ्य ही ठीक नहीं रहता था और उसपर काम की ज़िम्मेदारी भी बहुत थी। जिले भर का उसे संगठन करना होता था। कभी स्वयंसेवकों की रैली करनी, कभी पत्रों में रिपोर्ट भेजनी, कभी मीटिंग की सूचनाएं भेजनीं, कभी दल के नेताओं से विचार-विमर्श करना । यह सब काम इतने थे कि उसे थका डालते थे। वह पूरे समय' दफ्तर में बैठा भी नहीं रह सकता था। उसे भाग-दौड़ भी बहुत करनी पड़ती। इससे दफ्तर की अव्यवस्था का ढर्रा जैसा चला आता था वैसा ही चलता चला गया। शोभाराम एक सहायक की