२२० बगुला के पंख 'तुम क्यों हर वक्त उसकी गुलामी में लगी रहती हो, ज़रा रुखाई करो तो भागे यहां से। 'मैं क्या गुलामी करती हूं ! घर में बीमार हैं तो खाने-पीने का ध्यान रखना पड़ता है। न रखू तो तुम्हीं अांखें दिखाओगे।' 'मैं कहता हूं, यह उसके बाप का घर नहीं है, चला जाए यहां से ।' 'चीखो मत, सुन लेंगे।' 'सुन ले, क्या मैं उसका दबैल हूं ?' गोमती जैसे-जैसे ठण्डे जवाब देती जा रही थी, राधेमोहन वैसे ही वैसे तेज़ होता जा रहा था । ऐसा प्रतीत होता था जैसे उसे दिव्यदृष्टि मिल गई है, और उसे कुछ अदृश्य वस्तु दीख रही है। उसका क्रोध अब बढ़ता जा रहा था। उसका मन होता था कि वह अपनी औरत को पीट डाले । यद्यपि उसका कोई कारण वह नहीं जानता था। वह मुट्ठियां भींचता और पैर पटकता बक-झक कर रहा था । गोमती ने कहा, 'वस करो, वे सुन लेंगे। लाए तो तुम्हीं थे। शर्म करो।' 'मैं कहता हूं-कहीं उसे उठाकर सड़क पर न फेंक दूं।' 'तो फेंक दो, मुझसे क्या कहते हो।' गोमती मुंह फुलाकर चौके में घुस गई। और ज़ोर-ज़ोर से बर्तन इधर से उधर पटकने लगी। राधेमोहन भी भारी-भारी कदम रखता हुअा तेज़ी से घर से बाहर निकल गया। उसका मन क्रोध से उबल रहा था। और उसमें कुछ सोचने या समझने की शक्ति नहीं रह गई थी। वह नहीं जानता था कि वह क्या करे । बहुत देर तक वह सड़कों पर चक्कर लगाता रहा। फिर वह तेज़ी से एक ओर चल दिया। बीच-बीच में वह मुट्ठियां बांधता था । संदेह और क्रोध ने उसे अंधा कर दिया था । वह अपने ही को कोस रहा था। वह चाहता था कि उस जुगनू के बच्चे
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