बगुला के पंख २३१ ७२ पद्मा का खत पाकर जुगनू एकदम असंयत हो गया। पत्र में लिखा था, 'तुमने कहा था कि मैं तुमपर विपत्ति के दिनों में भरोसा रखू, सो अब वह घड़ी आन पहुंची । बस, तुम अब चले ही आयो कि उन भयंकर घड़ियों में मैं अकेली न रहूं। रात-दिन की असह्य यन्त्रणा झेलते-झेलते मेरी सारी शक्ति और साहस खत्म हो चुका है । अब मैं तुम्हारे ही आसरे हूं । जगन, मेरे पति का न कोई परिवार है न मित्र, धरती और आसमान पर मेरे जो कुछ भी हो तुम्हीं हो।' पत्र का एक-एक अक्षर दर्द की तड़प से भरा हुआ था, यह एक असहाय अबला स्त्री की पुकार ही केवल न थी, एक प्रेमभिक्षुरणी की प्रेमभिक्षा थी। चाहे जो भी हो, जुगनू में चाहे भी जितनी उद्दाम वासना थी, पर पद्मादेवी के प्रति उसका प्रेमातिरेक कम न था । यह सम्भव ही न था कि वह पद्मा के इस आर्तनाद को सुना-अनसुना कर दे । वह सब काम छोड़छाड़कर उसी रात मसूरी को चल दिया । चलती बार उसने रवानगी का यद्यपि तार दिया था, परन्तु उसे लेने बस के अड्डे पर कोई नहीं आया था। कुली साथ लेकर वह चल दिया। हैपी वैली पर एक एकांत टेकरी पर एक छोटा-सा काटेज था जहां पद्मा शोभाराम को लेकर ठहरी थी। एक पहाड़ी नौकर उसने यहीं रख लिया था। बहुत खोज-जांच करता हुआ जब जुगनू वहां पहुंचा तो चारों ओर सन्नाटा देख उसके मन में सिहरन पैदा हो गई। एक भीति की आशंका ने उसे घेर लिया। न जाने उसे क्या अशुभ समाचार सुनने और भयानक दृश्य देखने को मिले। अन्तत: वह काटेज के द्वार पर जा पहुंचा । द्वार भीतर से बन्द था। आवाज़ लगाने पर पद्मा बाहर आई । प्रोफ, पद्मा का यह रूप बड़ा अद्भुत था। बिखरे हुए बाल, जिनमें महीनों से कंघा नहीं किया गया था ; सूखा हुआ मुह, जिसपर रक्त की एक बूद भी नहीं। लापरवाही से शरीर पर लिपटे हुए मलिन वस्त्र, फटी-फटी उन्मादिनी जैसी दृष्टि, रक्तहीन सफेद सूखे होंठ। यह सब देखकर जुगनू को काठ मार गया, उसने कुछ कहना चाहा पर उसका कण्ठ न फूटा। पद्मा
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