२४८ बगुला के पंख 'तो भई, मेरे ऊपर छोड़ दो। मैं सब बन्दोबस्त कर दूंगा। मगर मेरी नेक सलाह मानो, उससे बेरुखाई का बर्ताव न करो । अभी मीठे बने रहो । खर्चा भी देते रहो। नौकरी की बात भी उसके कान में डालते रहो । मैं समझता हूं कि वह नौकरी को ज़रूर राजी हो जाएगी।' 'खैर, तुम उसके लिए मकान-डेरे का इन्तजाम कर दो । मैं बहुत व्यस्त हूं, उसे बता दो। और रुपया जिस कदर दरकार हो ले जाओ। लेकिन यार, मेरी सिरदर्दी किसी तरह कम करो।' नवाब ने स्वीकार किया और चल दिया। ७९ पद्मा दिल्ली आ गई ! नवाब ने स्टेशन पर उसका स्वागत किया, उसे नये मकान में ले गया । मकान का फ्लैट नई दिल्ली में निहायत आरामदेह था। फर्नीचर और दूसरी आवश्यक वस्तुएं भी वहां थीं। नवाब ने कहा, 'पाप आराम कीजिए और तीसरे पहर सुस्ताकर ज़रा बाज़ार चली जाइए । नौकर को साथ ले लीजिए और जरूरी चीजें खरीद लीजिए। ये थोड़े रुपये हैं, रख लीजिए । मेरे करने योग्य' कोई काम हो तो बताइए।' 'लेकिन वे कहां हैं ?' 'बहुत व्यस्त हैं । अभी दो-तीन दिन नहीं आ सकते। मैं जब आप कहें हाज़िर हो जाऊंगा।' पद्मा ने नवाब का नाम सुना था । कुछ-कुछ उसका इतिहास भी जानती थी । वह उसे अच्छा आदमी नहीं समझती थी। पर इस समय नवाब के सद्- व्यवहार से वह संतुष्ट हो गई । उसने कहा, 'एक बार मैं उनसे मिल सकती हूं ?' 'उनके मकान पर तो आपका जाना मुनासिब नहीं है । लेकिन कोई बहुत ज़रूरी काम हो तो आप विधानसभा-भवन में उनसे मुलाकात कर सकती हैं।' 'तो यही सही।' दूसरे दिन जुगनू ने सिर्फ पांच मिनट पद्मादेवी से मुलाकात की । उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह दूर खड़ी किसी पहाड़ की चट्टान को देख रही है । जुगनू ने
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