बगुला के पंख 'नहीं, बरसाती हवा है । ठण्ड लग जाएगी। पलंग पर ही लेटे रहो।' 'नहीं, नहीं, कुछ नहीं होगा, ताज़ा वायु के स्पर्श से मेरा चित्त प्रसन्न हो जाएगा। तुम्हें आज इस वेश में देखकर तो मैं जैसे बिलकुल स्वस्थ हो गया।' उसने दोनों हाथ फैलाकर पद्मादेवी की नरम-नरम हथेलियों को अपने ठण्डे हाथों में दबा लिया। पद्मादेवी चुपचाप पति के पास खड़ी रही। शोभाराम उठकर बैठ गया। उसने कहा, 'पद्मा, ज़रा सहारा दो, मैं कुर्सी पर बैलूंगा।' पद्मादेवी ने सहारा देकर उसे कुर्सी पर बिठा दिया। इतने ही से प्रयास से शोभाराम हांफने लगा। पद्मादेवी के चेहरे पर उदासी छा गई। वह सूनी-सूनी आंखों से पति को देखने लगी। शोभाराम ने कहा, 'पद्मा, प्यारी पद्मा, मैंने तुम्हें दुःख ही दुःख दिया। मेरे साथ विवाह करके तुमने क्या पाया ? तुम्हारा तो जीवन ही शून्य हो गया।' 'ऐसा क्यों कहते हो भला ? तुम-सा दयावान और उदार स्वामी पाकर तो कोई भी स्त्री धन्य हो सकती है।' 'परन्तु, क्या उदार और दयावान' होना ही एक पति के लिए काफी है ?' 'और नहीं तो क्या । मैं तो मन ही मन तुम्हारे गुणों का जब ध्यान करती हूं, तो अपने को अत्यन्त हीन' समझती हूं।' 'लेकिन मैं सदा का रोगी आदमी, क्या मुझे उचित था कि तुम-सी फूल-सी कोमल कली को अपने दुर्भाग्य से बांधता ?' 'रोग-शोक तो लगे ही रहते हैं। इससे क्या हुअा। तुम जल्दी चंगे हो जाओगे । फिर मुझे और क्या चाहिए ?' शोभाराम कुछ देर तक चुपचाप छत की ओर एकटक देखता रहा। फिर उसने एक ठंडी सांस खींचकर कहा, 'तुम्हारी भी कुछ अभिलाषाएं हैं पद्मा, वह क्या मैं समझता नहीं हूं?' 'तुम तो मेरी सभी अभिलाषाओं की पूर्ति मेरे कहने से प्रथम ही कर देते हो । मेरे सुख के साधन तुमने सभी जुटा दिए हैं । बस, अब तो तुम जल्द अच्छे हो जाओ, यही मेरी कामना है।' शोभाराम ने फीकी हंसी हंसकर मुंह फेर लिया। उससे कुछ कहते न बन पड़ा। इस समय बहुत-से विचार उसके मन में उठ रहे थे। वह पद्मा की उस ब-२
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