पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/७

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। २६ जनवरी, सन् १९५४ के दिन सुबह मुरादाबाद एक्सप्रेस से एक युवक तीसरे दर्जे के डिब्बे से निकला और यात्रियों की भीड़भाड़ को पार करता हुआ स्टेशन से बाहर आया। युवक की आयु कोई अट्ठाईस बरस की होगी। रंग उसका किसी कदर श्याम, शरीर हृष्ट-पुष्ट और सुगठित, चेहरा सुडौल, आंखें बड़ी-बड़ी और दांत सुन्दर थे । उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी और कपड़े मैले थे। वह खाकी ज़ीन की एक पुरानी पतलून और मैली कमीज़ पहने था। पैरों में पुराना शू था जो दांत दिखा रहा था । डिब्बे की भीड़ में वह रात को सो नहीं पाया था। इससे इस समय उसका मन आलस्य' से भरा था। वह ज़िला मुरादाबाद की अमरोहा तहसील के किसी कस्बे का रहने वाला था । जात का वह मेहतर था । परन्तु उसके माता-पिता सदा अंग्रेज़ साहब लोगों के बैरा- खानसामा रहे थे । वह भी साहब लोगों की नौकरी में बचपन ही से रहता आया था। दिल्ली, मेरठ, शिमला, लखनऊ और बम्बई तक उसने नौकरी के सिलसिले में यात्राएं की थीं। लखनऊ में एक उच्च श्रेणी के सिविलियन' साहब की कृपा से और उसकी नौकरी में छह साल रहने से वह काफी अंग्रेज़ी और उर्दू सीख गया था। हिन्दी उसने अपने बचपन में सीखी थी। वह अच्छी-खासी अंग्रेजी बोल लेता था । उच्चारण उसका बिलकुल अंग्रेजों की भांति था। लखनऊ में जब वह साहब लोगों की नौकरी में रहता था, तो उसकी दोस्ती साहब के बावर्ची रमजान से हो गई थी। रमजान उसीकी आयु का तरुण मुसलमान था। उसे शायरी का शौक था। वह सदा ही कुछ गुनगुनाया करता था। उसकी सोहबत और दोस्ती का असर इस तरुण पर भी पड़ा। और वह भी उर्दू शायरी करने लगा। उसके साथ कभी-कभी मुशायरों में भी जाने-आने लगा। इन सब कारणों से उसकी भाषा निखर गई और तबीयत संस्कारपूर्ण हो गई । लखनऊ शहर, मुसलमानों की सोहबत, अंग्रेज़ हाकिम की नौकरी, शायरी का शौक, इन