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बगुला के पंख
 

सबने मिलाकर उसे एक सभ्य-शिष्ट युवक बना दिया था । अंग्रेजों के साथ रहने और उनके रहन-सहन के तौर-तरीके देखने से वह भी नफासत-पसन्द हो गया था। जब वे साहब पेंशन लेकर विलायत जाने लगे, तब अपने एक दोस्त अंग्रेज़ के यहां उसे नौकर रखा गए थे जो सेना में एक कर्नल थे । मिज़ाज के वे बड़े सख्त थे परन्तु उनकी स्त्री बड़े मौजी स्वभाव की स्त्री थी। उसकी आयु भी कर्नल से बहुत कम थी । कर्नल की वह कुछ परवाह न करती थी। कर्नल कुछ बीमार भी रहता था । इससे उसका मिज़ाज चिड़चिड़ा हो गया था, इस कारण भी मेम साहब से उसकी प्रायः खटपट बनी रहती थी। कर्नल का खानसामा एक गोआनी ईसाई था। उसका रंग आबनूस के कुन्दे की भांति काला था। वह खूब धड़ल्ले से अंग्रेज़ी बोल लेता था। दूसरे नौकर-चाकर भी मद्रासी थे । उनका रहन-सहन और रंग-ढंग मेम साहब को पसन्द न थे। उनकी अपेक्षा वह तरुण उन्हें पसन्द आ गया था। उसकी तबीयत में लखनवी नज़ाकत-लताफत थी। शायराना लटक थी । वह खुशमिज़ाज, हंसमुख, स्वस्थ, सुन्दर तरुण था । मेम साहब के मन को वह भा गया । तिसपर वह अच्छी उर्दू बोलता था । मेम साहब को उर्दू सीखने का शौक था। उन्होंने इस तरुण से उर्दू सीखना आरम्भ किया और उसपर प्रसन्न होकर उसे अपने सब नौकरों का सरदार बना दिया तथा बाज़ार से सौदा-सुलफ लाने का काम उसके सुपुर्द किया। मेम साहब के घर का हिसाब-किताब भी वही रखता था । वह सब काम फुर्ती से और प्रसन्नता से करता था । बुद्धिमान और चतुर था, नफासत-पसन्द था। इसलिए मेम साहब के मन पर वह चढ़ता ही चला गया। धीरे-धीरे वह मेम साहब को उर्दू पढ़ाते हुए गजलें और शेर सुनाता । गला उसका सुरीला था । जब तरन्नुम में वह गज़ल गाकर सुनाता, मेम साहब यद्यपि उसका भावार्थ ठीक-ठीक नहीं समझती थीं, पर भाषा और उसके हाव-भाव से प्राविष्ट-सी हो जाती थीं। धीरे-धीरे सम्मान-आदर, एकान्त और तबीयत की एकता के कारण दोनों में अधिक घनिष्ठता बढ़ने लगी। प्रेम-सम्बन्धी शेर और गज़ल सुनाने के साथ ही वह उनका भावार्थ भी मेम साहब को समझाता था। प्रेम के तत्त्व कविता के परिधान में इस तरुण से सुनकर मेम साहब संयत न रह सकी । उन्होंने तरुण को आत्मसमर्पण कर दिया । उन्हींकी सलाह से तरुण ने मुस्लिम धर्म अंगीकार कर लिया और वह ठाठ से लखनवी वेश में रहने लगा। शेरवानी, चूड़ीदार