बगुला के पंख 'कच्चा चिट्ठा कैसा ?' जुगनू ज़रा घबराया। 'पहले तो यह बताओ, जेब खाली क्यों रहती है ? दिल्ली शहर में खाली जेब कैसे काम चल सकता है ?' 'ऐसी कुछ खाली भी नहीं, लेकिन मैं तनख्वाह सिर्फ सौ रुपये माहवार लेता हूं। कांग्रेस का ज्वाइण्ट सेक्रेटरी हूं, ज्यादा तनख्वाह लेना मुनासिब नहीं समझता । आखिर कौम की खिदमत भी तो एक चीज़ है।' 'वह बात पीछे होगी। अभी यह बतायो कि तनख्वाह क्या सब खर्च हो जाती है ? 'यह मैं नहीं जानता । मैं तो अपनी तनख्वाह एक आदमी को दे देता हूं।' 'वह आदमी औरत है या मर्द ?' 'औरत।' 'बड़े प्यारे मासूम बच्चे हो दोस्त, वह औरत जवान और खूबसूरत भी है न? 'है,' जुगनू के मुंह से एक ठण्डी सांस भी निकल गई। 'और तुम उसे प्यार करते हो, कहो हां।' 'ये सब बातें क्यों पूछ रहे हो ?' 'इसलिए कि तुम्हारी कुछ मदद करूं, तुम्हारे दिल की मुरादें पूरी करूं ।' 'समझ लो, करता हूं। तो ?' 'तो इसी बात पर एक सिगरेट पिनो दोस्त,' नवाब ने तपाक से सिगरेट उसके सामने बढ़ाई, एक अपने होंठों में लगाई । फिर कहा, 'उस औरत का खाविन्द है ?' 'और वह औरत भी तुम्हें चाहती है ?' 'चाहती है।' 'मिलना कैसे और कब होता है ?' 'मैं उन्हींके घर में रहता हूं। हर वक्त चाहे जब मिलना हो जाता है।' 'तो मुहब्बत का कुछ मज़ा भी चखा ?' 'याज रेल की पटरी के नीचे लेटकर जान देने के इरादे से निकला था। बस, इसीमें सब समझ लो ।'