बगुला के पंख 'खैर, देखा जाएगा। जहां तक मेहनत का सवाल है आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा। 'यह मैं जानता हूं। लेकिन भाई, पहले खाना खा लो । तुम्हारे लिए कब से ये खाना लिए बैठी हैं।' 'खाना तो मैं नहीं खाऊंगा । भूख नहीं है।' 'तुम्हारी तबियत तो अब ठीक है ?' 'ठीक ही है । न खाने से ठीक ही रहेगी।' 'तो खैर, थोड़ा दूध ही पी लो।' शोभाराम ने तो यह कह दिया। पर पद्मादेवी इस बीच खाना लगाकर ले आई। खाना सामने रखकर कहा, 'कल से कुछ भी नहीं खाया है। जितनी तबियत हो, उतना ही खा लो।' जुगनू 'नहीं' न कह सका । भोजन करने बैठ गया । भोजन के बाद उसने शोभाराम से कहा, 'अब और कुछ आपका आदेश है भाई साहब, या अब मैं जाकर सो रहूं। मेरा सर दर्द कर रहा है और मैं बुरी तरह थका हुअा हूं।' 'तो जानो सो रहो । और बातें सुबह होंगी।' वह अपने कमरे में आकर चारपाई पर पड़ रहा । इस समय उसकी अजब मानसिक दशा हो रही थी। ज़िम्मेदारी का हिमालय-सा बोझ उसके सिर पर था। भूत-भविष्य उसकी आंखों में नाच रहे थे। कभी उसे भूली-भटकी पुरानी यादें आतीं, बीते हुए दिन सामने आते, कभी पद्मा, शोभाराम, नवाब और कभी शारदा का चेहरा उसके सामने प्राता, कभी वह स्वप्न देखता कि वह म्यूनिसि- पैलिटी का चेअरमैन बन गया है । इसके बाद ही उसके स्वप्निल विचारों का तांता टूट जाता और वह बेचैनी से छटपटा उठता। कोई हिंसक पाशविक प्रवृत्ति उसे उत्तेजित करती । वह सोचता, 'मुझे चेअरमैन बनना ही पड़ेगा। उस कुर्सी पर बैठते ही पद्मा मुझे प्राप्त हो जाएगी।' फिर वह पद्मा के ध्यान में डूब जाता। रात बीती। कुछ सोते, कुछ जागते। सुबह जब वह उठा तो उसका शरीर आलस्य से भरा हुआ था और उसका मन बड़ा बोझिल-सा हो रहा था। वह झटपट उठा और नित्यकर्म से फारिग होकर उन सब विचारों में डूब गया
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