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बाण भट्ट की आत्म-कथा

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बाण भट्ट की आत्म-कथा नहीं है, मेरे दिन अपने नहीं हैं, मेरी गति अपनी नहीं है, मेरा मन अपना नहीं है। क्यों ऐसा हुआ ? आजीवन फक्कड़ की ज़िन्दगी बिताने वाला बाण भट्ट अाज अपने को इतना पराधीन क्यों समझ रहा है ? कौन कहता है कि तुम नौकरी कर रहे हो, तुम्हें नौकर कीं भाँति रहना होगा कोई तो नहीं कहता है । यह पराधीनता तो तुमने स्वयं मोल ली है । मुझे सब से आश्चर्य इस बात पर हुआ कि एक बार भी मेरे मन ने विद्रोह नहीं किया। एक बार भी उसने नहीं कहा कि यह मुझसे नहीं होगा । उल्टे वह यही समझने में उल्लसित होता रहा कि वह अपराधी है, भयंकर दोषी है, उसे दण्ड मिलना चाहिए । अपराध क्या है, पता नहीं; पर अपराधी होने में मानो एक पुरस्कार मिल रहा है। नि पुणिका ने मेरी चिन्ता के स्रोत को अधिक नहीं बहने दिया, बोली-“तुम्हें इस तरह भट्टिनी को नहीं छोड़ देना चाहिए, भट्ट ! अब मैं थोड़ा-थोड़ा उस अपराध का रूप समझा । पर मैंने तो भट्टिनी के कल्याण के लिए ही उन्हें छोड़ा था। मैंने रात की सारी बातें संक्षेप में निपुणिका को सुना दीं । सुन कर निपुणिक को न आश्चर्य हुआ और न खेद । उसने एक दीर्घ निश्वास लिया और थोड़ी देर तक पैर की अँगुलियों से नाव के पट्टे को कुरेदती-सी सोचती रही । थोड़ी देर बाद जब उसने अखें उठाई, तो इनमें एक अद्भुत अवसाद के भाव लक्ष्य कर मैं चिन्तित हो उठा। मैंने शिथिल भाव से कहा..."निउनिया, तू भी उदास हो गई ?' निपुणिका सम्हल गई । उसने अपने मुख पर प्रसन्नता का भाव ले अाने का प्रयत्न किया; पर उस प्रयत्न में जो एक प्रकार का मानसिक क्लेश वह अनुभव कर रही थी, वह मुझसे छिपा भी नहीं और उसने छिपाने का यत भी नहीं किया। मैंने आग्रहपूर्वक पूछा-- ‘नि उनिया, तु क्यों उदास हो रही है ?? निपुणिका ने सहज भाव से में ही उत्तर दिया-'कुछ नहीं भट्ट, मैं सोच रही थी कि महामाया ने