पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/१२५

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सप्तम उच्छ्वास गंगा-तट पर पहुँचा, तो सवेरा हो चुका था। मैंने बिल्कुल ही नहीं सोचा था, मेरे आने में विलम्ब होने से भट्टिनी और निपुणिका इतनी चिन्तित हो जायेंगी कि उन्हें रात-भर नींद ही न आयेगी । भट्टिनी की जागर-खिन्न अाँखें आषाढ़ की प्रथम वृष्टि के वाष्प से परिग्लान बन्धुजीव-कुसुम के समान दयनीय दिखाई देती थीं। उन अखिों को देखकर मेरा हृदय अज्ञात आनन्द से भर गया । अभागे बाण की इतनी चिन्ता भी किसी को हो सकती है, यह बात मेरी बिल्कुल जानी हुई नहीं थी। मैं अपने हर्ष का कारण ठीक-ठीक समझ रहा हूँ, ऐसा ही मेरा विश्वास है । परन्तु मैं उस समय बिल्कुल ही नहीं समझ पाया कि भट्टिनी की वे खिन्न-मनोहर अखे मुझे देखकर क्यों अश्रु से भर गई। उन्होंने कातरता के साथ मुझे देखा और बिना कुछ कहे ही भीतर चलीं गई। नौका बड़ी थी । कुमार कृष्णवर्धन ने उसमें सभी आवश्यक सामग्री रखवा दी थी । नागरीक वेश में कुछ सैनिक भी साथ में एक अलग नौका पर थे । मैं भट्टिनी की अप्रसन्नता का कारण नहीं समझ सका । केवल अपराधी की भाँति सिर नीचा किए खड़ा रहा। निपुणिका मुझे थोड़ी देर तक इसी अवस्था में देखती रही। उसे शायद मेरा उस प्रकार दुखी होना अच्छा लग रहा था। मेरे मन में एक ही साथ सैकड़ों प्रकार की चिन्ताएँ टकराने लगीं। मैंने सारा जीवन ही तो अनुत्तरदायी ढंग पर समय काट कर बिताया है। कितनी रात्रियों और कितने दिन न-जाने कहाँ-कहाँ बिताए हैं। पर अपराधी तो आज ही बनना पड़ा है। मैंने स्वेच्छा से यह कैसा बन्धन अपने लिए तैयार कर लिया है। कल तक मैं स्वतन्त्र था, आज पराधीन हूँ। मेरी रात अपनी