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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की अात्म-कथा शिका दुर्बल है १ हाय, बाण भट्ट अकेला है ! मुझमें उड़ने की शक्ति होती, तो तुरंत उड़कर देवपुत्र के पास चला जाता ; पर मैं उई तो नहीं सकता। पत्र के विषय में मैं उलझा हुआ। उत्त जित हो रहा था, उसी समय भट्टिनी का स्वर सुनाई दिया। जान पड़ता था, वे देर से मेरी दशा देख रही थीं। उनके मुख-मण्डल पर सहज अनुभाव तरंगित हो रहा था और सारे शरीर को घेर कर एक अपूर्व भाव-माधुर्य उल्ल- सिंत हो रहा था। अपने सीमन्त-स्थित अवगुण्ठन को प्रवाल-शोण नख-प्रभा से सिंचित करते हुए उन्होंने आगे की अोर सरकाया और आदेश देती हुई-सी बोलीं-'भट्ट, पत्र पढ़ना छोड़ो, प्रसाद ग्रहण करने का समय हो गया है ।' प्रसाद-ग्रहण अर्थात् भोजन। भट्टिनी ने मुझसे एक बार भी महावराह की मूर्ति के बारे में नहीं पूछा था । वे समझ गई थीं कि मैंने गंगा की धारा में मूत्ति का विसर्जन कर दिया होगा । मैं जानता हूँ कि इस बात से उन्हें कितना क्लेश पहुँचा होगा, परन्तु इस कुसुम-कोमल शरीर में कितना गम्भीर हृदय है, इस लघु-काया में कैसा कोलीन्य तेज है, इस छोटी अवस्था में कैसी अनुभावशालीनता है ! भट्टिनी को आशंका है कि पूछने से मुझे क्लेश होगा, और इसीलिए उन्होंने पूछा ही नहीं; परन्तु महावराह की पूजा एक दिन भी बन्द नहीं हुई है। जलौघमन्ना सचराचरी धरा' का मोहन स्तव कभी नहीं रुका हैं। प्रसाद पाने के सौभाग्य से हम कभी वंचित नहीं हुए हैं । मैंने विनयपूर्वक उत्तर दिया कि अभी चलता हूँ । भट्टिनी लौटने लगीं । फिर एक क्षण के बाद मेरी ओर घूम गई है। अबकी बार उन्होंने थोड़ा हँसने का प्रयत्न किया । एक पवित्र आलोक से सारा घर जगमगा उठा, मानो एक ही साथ सौ-सौ रात्रिक प्रदीप जल उठे हों । भट्टिनी के चेहरे पर बहुत दिनों बाद श्राज स्मित- रेखा दिखाई दी है। मेरा व्याकुल और उद्विग्न चित्त इस शामक मुस्कान से बहुत शान्त हो गया । उत्साहावेश में मैंने अनावश्यक प्रश्न