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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्मकथा । जब मैं नगर में पहुँचा, तो बड़ी धूमधाम देखी कूर्मपृष्ठ के समान उन्नतोदर राजमार्ग पर एक बड़ा भारी जुलूस चला जा रहा था। उसमें स्त्रियों की संख्या ही अधिक थी । राजवधुएँ बहुमूल्य शिविकाओं पर अरूढ़ थीं। साथ-साथ चलने वाली परिचारिकाओं के चरणबिघट्टन-जनित ने पूरो के क्वणन से दिगन्त शब्दायमान हो उठा था । वेगपूर्वक भुज-लताओं के उत्तोलन के कारण मणि-जटित चूड़ियाँ चंचल हो उठी थीं। इससे बाहु-लताएँ भी झनकार करने लगी थीं । उनकी ऊपर उठी हथेलियों को देखने से ऐसा लगता था, माना आकाश गंगा में खिली हुई कमलनियाँ इवा के झोंकों से विलुलित होकर नीचे उतर आई हो । भीड़ के संघर्ष से उनके कानों के पल्लव खिसक रहे थे। वे एक-दूसरी से टकरा जाती थीं। इस प्रकार एक का केयूर दूसरी की चादर में लगकर उसे खरोंच डालता था । पसीने से धुल-धुलकर अंगराग उनके चीनांशुकों को सँग रहे थे। साथ में नर्सकियों का भी एकदल जा रहा था। उनके हँसते हुए बदनों को देखकर ऐसा भाई होता था कि कोई प्रस्फुटित कुमुद का वन चला जा रहा है। उनकी चंचल हार-लताएँ जोर-जोर से हिलती हुई उनके वक्षोभाग से टकरा रही थीं, खुली हुई क्रेशराशि सिन्दूर बिन्दु पर अटक जाती थी । निरन्तर गुजाले और अबीर के उड़ते रहने के कारण उनके केश पिंगल वर्ण के हो उठे थे और उनके मनोरम गान से सारा राजमार्ग प्रतिध्वनित हो उठा था।

मैं नगर के एक चौराहे पर खड़ा-खड़ा मुग्ध भाव से यह दृश्य देख रहा था ।इसका सच से मज़ेदार हिस्सा वह था, जिसमें राजमहल में रहने वाले बौने, कुबड़े, नपुसक और मूर्ख लोग उद्धत नृत्य से बिल होकर भागे आ रहे थे । एक वृद्ध कंचुकी की दशा बड़ी दयनीय हो गई थी। उसके गले में एक नृत्यपरायण रमणी का उत्तरीय अरु । अँटक गया था और खीच-तान में पड़ा हुआ बेचारा बूढ़ा उपहास का