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बाण भट्ट की आत्म-कथा

रही थी। उसने बड़े अाग्रह और प्रेम के साथ मुझे अपना अातिथ्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। उसके किसी व्यवहार में संकोच या झिझक नहीं थी; फिर भी एक सहज सौ कुमार्य के कारण सब-कुछ बहुत कमनीय मालूम हो रहा था। घर के भीतर सामग्री बहुत कम थी ; परन्तु उसको इस प्रकार सजाकर रखा गया था कि शोभा निखर पदी थी । एक छोटे-से गृह में दो तृणास्तर बिछे हुए थे । पूर्व प्रान्त में गोपाल वासुदेव की मनोहारी मूर्ति थी और उसके एक पाश्र्व में धूप-वर्तिका जल रही थी। घर में एक दासी थी, जिसने प्रदीप आदि जला रखे थे । सुचरिता ने स्वाभाविक सरत्ने स्मित के साथ मुझे एक तृष्णास्तर पर बैठने का अनुरोध किया और स्वयं दूसरे स्तरण पर बैठ गई । थोड़ी देर चुपचाप बैठी रहने के बाद उसने दीर्घ निःश्वास लिया और धीरे से बोली-'तो वह अभागी अभी जीती है ! सुचरिता के प्रत्येक चरण में एक सहज आभिजात्य का गौरव था । उसके बैठने में, बोलने में, यहाँ तक कि निःश्वास लेने में भी एक प्रकार की महनीयता थी। मैं ध्यान से उसे देखता रहा था ; परन्तु वह अपने- आप में ही खोई थी । थोड़ी देर बाद उसने फिर शुरू किया--‘अर्य, आज मेरा अहोभाग्य है जो आपके दर्शन हुए। निपुणिका से आपके बारे में बहुत सुन चुकी हूं । वह अापका नाम लिए बिना मामूली से मामूली बातचीत भी नहीं चला सकती थी। बहुत दिनों से मन में साध थी कि अापके दर्शन करू ; पर हम लोगों का ऐसा भाग्य कहाँ है ! अाज नारायण प्रसन्न हैं, उन्होंने स्वयं अापको मेरे पास भेज दिया है । मेरे श्रविनयपूर्ण अाचरण से अापको क्लेश पहुँचा है । यहाँ राजाज्ञा बड़ी सतर्क है, अार्य ! राज्य की अोर से निपुरिएका के प्राण-दण्ड का निदेश हैं ! हाय अभागी ! यह कह कर उसने फिर से दीर्घ नि:श्वास लिया। क्षण-मर बाद उसने फिर