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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बीण भट्ट की आत्म-कथा २३५ यही मेरा मकान है। इससे अधिक मैं कोई बात आप को नहीं बता सकती। मुझे अाप क्षमा करें । शंका का कारण मैं समझ गया । मैंने नम्रतापूर्वक उत्तर दिया-‘शुभे, इतना ही परिचय मेरे लिए पर्याप्त है। आप सुचरिता-देवी हैं और आप के पास ही मैं यह समा- चार लेकर आया हूँ कि आप की सखी नियुणिका जीवित है। उसने अपने ऊपर जो कार्यभार लिया था, उसे करने में वह सफल रही है । मुझे इतना ही भर कहना था। इसके बाद अभवती ही प्रमाण हैं, मैं अपना सन्देश दे चुका । अब विदा होता हूँ ।'–इतना कहकर मैं नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर मुड़ा । सुचरिता थोड़ी देर तक चित्र-लिखित-सी खड़ी रही। फिर धीरे से मुझे पुकारा--‘भद्र, अप्रसन्न हो गए क्या ? सुनो । मैंने उसी विनम्रता के साथ कहा--कौन पाप तुम्हारे ऊपर अप्रसन्न हो सकता है, देबि ! तुम्हारे अविश्वास और आशंका का कारण मैं समझ सकता हूँ ।' सुचरिता ने इधर-उधर देख कर कहा- 'आर्य का नाम जान सकती हूं ? मैंने तुरंत जवाब दिया- 'मैं बाण भट्ट नाम से प्रसिद्ध हैं देवि, पर मेरा असली नाम दक्ष भट्ट है । मैं मगध से आ रहा हूँ ।' नाम सुनते ही सुचरिता ने गले में चल लपेट कर, हाथ जोड़ कर प्रणाम किया । कातर भाव से बोली- अपराध मन में न लावे, अार्य ! अज्ञजन का अपराध साधुजन मन में नहीं लाते । मैंने आप का नाम सुना है । यदि अाज्ञा हो, तो भीतर ही चलकर इस विषय में आर्य से पूछ। मैंने स्वीकार किया। सुचरिता का छोटा-सा घर काफ़ी सुरुचिपूर्ण था। फाटक से राज मार्ग तक गोमय से उपलिप्त भूमि खट्रिकचूर्ण को अभिराम भएडलि- का से सुशोभित थी । चौखट के ऊपर क्षीरसागरशायी नारायण की मूर्ति उत्कीर्ण थी और उसे घेर कर एक मनोहर मालती-माला सुन्दर ढंग से टॅगी हुई थी। पाश्व में छोटी-छोटी वेदिका पर मंगल-कलश सुसजित 'थे और मकान के ऊपर सौभाग्य-पताका लहरा