पृष्ठ:बाणभट्ट की आत्मकथा.pdf/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय उच्छवास

मैं तेज़ी से बढ़ा जा रहा था । भावी जीवन की रंगीन कल्पनाश्रों में डूबते-इतराते मनुष्य को आसपास देखने की फुरसत कहाँ होती है । मैं एक प्रकार से अखि मूद कर चल रहा था। इसी समय एक क्षीण- कोमल कंठ ने पुकारा--‘भट्ट, ओ भट्ट, इधर देखो, मुझे पहचानते हो इस अवाज़ ने मुझे चौंका दिया ! इस, सुदूर स्थाएवीश्वर में मुझे पहचाननेवाला यह कौन है ? भागते हुए घोड़े को वा जिस प्रकार रोक देनी है, उसी प्रकार मेरी दौड़ती हुई विचार-धार को इस आवाज़ ने रोक दिया। मैंने पीछे मुड़कर देग्वा । एक नातिकमनीय मूत्ति रमणु मुछे आवाज़ दे रही थी। उसके मुखमंडल पर तारुण्य था परन्तु उसकी दीप्ति धुंधली हो गई थी, जैसे धुआँ उगलती हुई दीप- शिखा हो । उसकी अखे संध्या धुंधले प्रकाश में चमक रही थीं। उनके किनारों पर साफ ही दिख जाने वाली काली रेखाएँ उस चमक को अभिभूत नहीं कर पाती थीं । वह एक पान की दुकान पर बैठी थी । ऐसा लगता था कि वह पान कम बेच रही थी; मुस्कान ज्यादा । मुझे पहचानने की शक्ति का गर्व था । मैं हँसी वाली रुलाई और इलाई वाली हँसी पहचानने में अपने को सिद्धहस्त समझता था ; पर यह हँसी एक विचित्र प्रकार की थी। उसमें अाकर्षण था, पर असिक्ति नहीं थी ; ममता थी, पर मोई नहीं था। मैं उसकी दूकान की श्रीर अनायास ही खिंच गयी और उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। वह बोल उटी-‘भट्ट, तुम भी नहीं पहचानते ! अरे, यह तो निपुरिएका है । मैं एक क्षण तक उन्मथित-सा, भ्रान्त-सा, नि:संज्ञ-सा खड़ा रहा । फिर एकाएक चिल्ला पड़ा--'अरे, निउनिया।