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बाण भट्ट की आत्म-कथा

३३० बाण भट्ट की अाम-कथा से आश्वस्त हुआ हूँ । निपुणिका की अाँखों में क्षण भर में लीला की रेखा चमक गई, बोली, “तुम्हें श्रप्रसन्न होना चाहिए था भट्ट, तुम अगर यह सुनकर उदास हो जाते तो मेरा चित्त और भी विगत कल्मष हो जाता है' निपुगि का का लीलावती रूप क्षण भर में निखर था, उसकी अनुपम अाँखें स्मितधारा में स्नान करने लगीं । मैंने उसके इस कथन का रहस्य समझते हुए कहा---'दीर्घकाल की मेरी उदासी क्या तेरे विकारों को दबा सकी है निउनिया ! फिर अइज की उदासी से क्या बन या बिगड़ जायगा ! निपुणिका के पारडर कपोल अनुराग की लालिमा से दमक उठे, उसकी चुहल भरी अाँखों में प्रेम-विकार लहरा उठे, ललाट पट्ट सात्त्विक भाव से स्विन्न हो उठा, उसने एक क्षण मेरी अर देखकर अखें झुका लीं । थोड़ी देर बाद उसने गद्द कंठ से कहा-‘हाँ आर्य, तुम्हारी उदासी मेरे लिये बड़ी निधि रही है । मैं जब तुम को उदास देखती थी तो यही समझती थी कि मेरा जन्म सार्थक है, तुमने इस गंधहीन पुष्प की चरणों तक पहुँचने देने के अयोग्य नहीं समझा । उस रात को तुम्हारी हँसी ने मेरा हृदय दीण-विदीर्ण कर डाला था। परन्तु वह मेरी भूल थी। तुमने नाटक-मण्डली तोड़कर मेरे विकारों को सत्य बना दिया था। हाय, मैंने कितनी दुर्लभ वस्तु को लोभ किया था। मैं उसके अयोग्य थी । ६ वर्षों के प्रायश्चित्त से मैं अपना मोह काट सकी । भगवान् ने पुरस्कार में मुझे फिर तुम्हारा श्राश्रय दिया । पर जो विकार सत्य हैं वे कहाँ जायँगे भला ? तुमने उस दिन अभियोग के स्वर में कहा था कि आर्य वैकटेशपाद से दीक्षा लेने की बात मैंने तुम से क्यों नहीं कही । वह दीक्षा असत्य थो आर्य । मैंने जिस दिन तुमको देखा, उसी दिन मैंने उसे भुला दिया। मैं विकारों को नारायण को अर्पण करने की साधना में असफल रही। सुचरिता सफल हुई है, वह धन्य है । परन्तु तुम्हें पाकर मैंने अपने विकारों को ही सिद्धि-सोपान मान