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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाण भट्ट की आत्म-कथा ३८३ चारुस्मिता को ध्यान से देख कर कहा---‘कल सायंकाल मेरी कुटिया में आ सकोगी बहन १' चारुस्मिता को जैसे मनचाहा वरदान मिल गया हो । गद्गद् भाव से बोली, “हाँ देवि ; और श्रद्धा से सिर झुका कर खड़े हो रही है। | सुन्दरता के चले जाने के बाद धावक और चारुस्मिता भो बिदा हुई। मैं अकेला भइनी के पास रह गया। आज मेरा हृदय टूक-टूक हो जाना चाहता था । निपुशिका-विहीन भइन। की कल्पना मैंने कभी नहीं की थी । भट्टना तब भी सोई हुई थी परन्। उनके अं-अं। में अवसन्न तन्य काँप रहा था । वस्तुतः वह निद्रा की कम और समाधि की अवस्था में अधिक थी, केवल उनकी चित्त-वृत्ति अपनी अदृश्य सहचरी में विलीन हो गई थीं । धीरे-धीरे प्रातःकाल हो श्राया। भाइन उटीं, उनकी खिन्न अाँखें कोने-कोने में घूम गई, मानो जो खा गई है उसके खोने से कितनी रिक्तता आ गई है। इसका हिसाव कर रही हों । शव्या से उठीं तो ऐसा लगा कि किसी का करावलम्ब खोज रहीं है । मैंने निकट जाकर कहा---‘क्या आज्ञा है देवि । भट्टिनी ने मेरे हाथ का सहारा लिया और स्नान करने की इच्छा प्रकट की। मैंने उन्हें स्नान-गृह तक पहुँचा दिया। मैं चुपचाप शय्या के पास आकर बैठ गया थोड़ी देर बाद भट्टिनो का पद-संचार सुनाई दिया। महावराह की मूति की ओर चली गई। एक क्षण बाद उन्होंने पुकारा । उनका गला भरा हुआ था । बोलीं, 'आज महावराह की स्तुति तुम्हीं पढ़ दो भट्ट, मैं नहीं पढ़ सकती ।' | गला तो मेरा भी सँधा हुआ था पर भट्टिनी की आज्ञा पालन करना ही चाहिए। यही सोच कर मैंने व्याकुल कंड से वह स्तुति पढ़ी। हे जलौघ ममा सचराचर धरा के समुद्ध, यह कैसा परिहास है तुम्हारा ! दीनानाथ, इसमें कौन-सी कल्याण-कामना छिपी है। तुम्हारी १ निपुणिका चली गई, भट्टिनी परकटी कोकिला की भाँति