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बाण भट्ट की आत्म-कथा

५६ बाण भट्ट की आत्मकथा महल देखा है क्या है? मैंने तो कल्पना से श्रेष्ठी धनदत्त का सर्जन किया था और प्रान्त-भाग में कोई महले भी उसी शक्ति से खड़ा कर लिया था । पर कैसा आश्चर्य है, धार्मिक ने वह महल देख रखा था ! बोले--‘हाँ, हाँ, देखा है; वही भ, जिसके सामने विशाल अश्वत्थ-वृक्ष है ? मैंने कहा-‘धन्य हो महाराज ! ठीक उसी अश्वत्थ वाले महल म श्रेष्ठी का निवास है । परन्तु आप यदि महल में न जाना चाहें, तो अश्वत्थ-वृक्ष के नीचे प्रतीक्षा करें । श्रेष्ठी को मैं सन्देश देने जा रहा हूँ । धार्मिक ने उपेक्षापूर्वक कहा- ‘जा ! मैं अश्वत्थ-वृक्ष के नीचे प्रतीक्षा करता रहूँगा ।' मैंने सिर झुका कर प्रणाम किया और एक ओर चला गया। थोड़ी देर बाद पुजारी ने महावर के रंग से रंगा वस्त्र पहना, उत्तरीय संभाल लिया और कजल चूर्ण बगल में लेकर प्रस्थान किया। मैंने मन-ही-मन सोचा कि नगर के उस प्रान्त तक जाने में पुजारी के लँगड़े पैरों को कम-से-कम दो घटी समय लगेगा, दो घटी प्रतीक्षा करने में जायगा और यदि उस अज्ञात महल में घुस न पड़े, तो लौटने में भी दो घटी का समय लग ही जायगा । कम-से- कम छः घटी तक हम निश्चिन्त हैं। इसमें यदि कोई व्यवस्था सम्भव हो, तो कर लेनी चाहिए। मैंने प्रांगण-गृह के पास जाकर निपुणिका को धीरे से आवाज़ दी। वह पहले से ही मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। मुझे देखते ही उसने हँस कर कहा- ‘अभिनय सफल हुआ है, भट्ट ! पुजारी आए थे । प्रचुर अल दे गए हैं। गोधूलि-समय तक वे अश्वत्थ- वृक्ष के नीचे प्रतीक्षा करेंगे। तुमने जिस महल की कल्पना से रचना की है, वह सचमुच है और यहाँ से एक योजन दूर है । पुजारी आज रात को भी नहीं लौट सकता है वह रात्र्यन्ध है। इस बीच कोई अच्छी व्यवस्था कर सकते हो, तो करो । भट्टिनी बहुत उदास हैं।' निपुणिका उस राजबाला को 'भट्टिनी' कहती थी। अन्तःपुर की परिचारिकाएँ रानी को इसी प्रकार सम्बोधन करती हैं। मैंने भी इसीलिए उन्हें