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बाण भट्ट की आत्म-कथा

बाणु भट्ट की आत्मकथा ५६. थी । क्या मैं देवपुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या के उपयुक्त कोई आवास- स्थान खोज सर्केगा, क्या भदन्त सुगतभद्र आचार्य शीलभद्र के सहा- ध्यायी हैं ? इन्हीं विचारों में निमग्न मैं विहार के द्वार पर आ गया। विहार दुतल्ला था; पर अाजकल बौद्धों में विहार बनाने की जो नई शैली मान्य होती जा रही है, वह इसमें भी दिख रही थी। बाहर से सीधे दुतरले पर जाने की सीढ़ी थी । इकतल्ले पर आने का रास्ता भीतर की अोर था । बिना दुतल्ले पर गए कोई नीचे के तल्ले में नहीं जा सकता। मैं ठीक नहीं समझ पाता कि इस प्रकार का विहार बनाने से बौद्धों के सद्धर्म को क्या लाभ पहुँचता है । वे लोग अब सभी बातों को रहस्यमय बनाते जा रहे हैं, शायद यह शैली भी रहस्यमयता का परिणाम हो । खैर, अपने को इन बातों से क्या मतलब १ सामने बौद्ध विहार है। मुझे जानना है कि सुगतभद्र कौन हैं ? अपने काम लायक कोई बात मिल गई, तो ठीक है; नहीं तो समय नष्ट करने से अनर्थ हो जायगा । विहार के द्वार पर एक सामनेर हाथ में कोई पोथी लिए रट रहा था। मैंने उसी से पूछा-'क्यों भाई, भदन्त सुगत भद्र हैं ? उसने बिना सिर उठाए ही जवाब दिया-‘हैं !' ।

  • क्या आप से एक बात पूछ सकता हूँ ?

‘दो पूछ लीजिए ।---सामनेर ने हँस कर सिर उठाया। ये सुगतभद्र कौन है ? सामनेर की अखिों में ज़रा क्रोध का भाव खेल आया । बोला---- 'क्या आप अाचार्य सुगतभद्र को भी नहीं जानते १ स्वयं महाराजा धिराज श्री हर्षवर्धन ने उन्हें तक्षशिला से यहाँ बुलाया हैं । जिनकी चरणधूलि पाने के लिए महाराजाधिराज सवदा समुत्सुक रहते हैं, उन प्राचार्य-प्रवर सुगतभद्र को भी आप नहीं जानते ! मैंने टोक कर कहा---परदेशी हैं, भद्र !' “कहाँ से आए हैं ?