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अयुक श्रयुक्त - वि० १. अनुचित | २. अलग । श्रयुक्ति - संज्ञा स्त्री० युक्ति का अभाव | गड़बड़ी । श्रयुग, श्रयुग्म - वि० १. विषम । २. अकेला । श्रयुत-संज्ञा पुं० दस हज़ार की संख्या का स्थान । श्रयोग - संज्ञा पुं० १. योग का अभाव । २. बुरा योग । ३. कुसमय । वि० बुरा । वि० अयोग्य | अनुचित | योग्य - वि० जो योग्य न हो । योनि - वि० जो उत्पन्न न हुआ हो । अजन्मा । अरंग-संज्ञा पुं० सुगंध का झोंका । अरंड - संज्ञा पुं० दे० " एरंड", "रेंड" | श्ररंभना- क्रि० प्र० बोलना । नाद करना । क्रि० स० आरंभ करना । क्रि० अ० आरंभ होना । शुरू होना । श्रर-संज्ञा पुं० ज़िद । श्रड़ | अरक - संज्ञा पुं० १. आसव । २. रस । ३. पसीना । अरकना- क्रि० प्र० १. अरराकर गिरना । टकराना । २. फटना । दरकना । अरकाटी -संज्ञा पुं० वह जो कुली भरती कराकर बाहर टापुओं में भेजता है अरगजा -संज्ञा पुं० एक सुगंधित द्रव्य जो केसर, चंदन, कपूर आदि को . मिलाने से बनता है । अरगट - वि० पृथक । अलग । अरगनी -संज्ञा स्त्री० दे० "अलगनी" । ५५ ानT १. अजग अरगाना - क्रि० अ० होना । पृथक होना । २. चुप्पी साधना । क्रि० स० अलग करना । छुटिना 1 अरघ - संज्ञा पुं० दे० " श्रर्घ" । अरघा -संज्ञा पुं० एक गावदुम पात्र जिसमें अरघ का जल रखकर दिया जाता है । अरचना - क्रि० स० पूजा करना । अरज़ - संज्ञा स्त्री० १. विनय । निवेदन २ चौड़ाई धरजी - संज्ञा स्त्री० आवेदनपत्र | + अज़ करनेवाला । श्रराण, श्ररणी -संज्ञा स्त्री० १. एक वृक्ष | गनियार | अँगे । २. सूर्य्यं । अरण्य - संज्ञा पुं० वन । जंगल । अरण्यरोदन - संज्ञा पुं० १. निष्फल रोना । २. ऐसी पुकार जिसका सुननेवाला न हो । श्ररति-संज्ञा स्त्री० विराग । श्ररथ - संज्ञा पुं० दे० "अर्थ" । अस्थाना - क्रि० स० समझाना | व्याख्या करना । श्ररथी - संज्ञा स्त्री० सीढ़ी के आकार का ढाँचा जिस पर मुर्दे को रखकर श्मशान ले जाते हैं । टिखटी । संज्ञा पुं० [सं० अ + रथी ] 'जो रथी न हो । पैदल । वि० दे० " अर्थी" । अरदली - सं० पुं० वह चपरासी जो साथ में या दरवाजे पर रहता 1 अरध-वि० दे० "अर्ध" । क्रि० वि० अंदर । भीतर । श्ररन-संज्ञा पुं० दे० " अरण्य" । श्ररना - संज्ञा पुं० जंगली भैंसा । * क्रि० प्र० दे० "अड़ना" |