पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४६

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१४८ जैसलमेर की राजकुमारी उसे देवी की भाति पूजता था। उसने मलिक काफूर के पास जाकर कहा : "यवन सेनापति, मुझे आपसे कुछ परामर्श करना है। मैं विवश हो गई हूं। दुर्ग में खाद्य-सामग्री बहुत कम हो गई है और मुझे यह सकोच हो रहा है कि आपकी कैसे अतिथि-सेवा की जाए। अब कल से हम लोग एक मुट्ठी अन्न लेगे और आप लोगो को दो मुट्ठी उस समय तक मिलेगा जब तक कि अन्न दुर्ग में रहेगा। आगे ईश्वर मालिक है।" मलिक काफूर की आखो मे आसू भर आए । उसने कहा : "राजकुमारी, मुझे यकीन है कि आपबीस किलो की हिफाजत कर सकती है।" "हां, यदि मेरे पास हो तो।" राजकुमारी चली गई। अठारह सप्ताह और बीत गए। अलाउद्दीन के गुप्तचर ने आकर सुलतान को कोनिश किया। सुलतान ने पूछा, "क्या राजकुमारी रत्नवती किला देने को तैयार है ?" "नही, खुदाबन्द, वहा किसी तरकीब से रसद पहुच गई है। किला नौ महीने और पड़े रहने पर भी हाथ न आएगा। फिर पानी अब किसी तालाब में नहीं है।" "और क्या खबर है ?" "रत्नसिह ने मालबे तर्क शाही सेना को खदेड़ दिया है।" अलाउद्दीन हतबुद्धि हो गया और महाराव से सन्धि का प्रस्ताव किया। सुन्दर प्रभात था। राजकुमारी ने दुर्ग-प्राचीर पर खडी होकर देखा, शाही सेना डेरे-डडे उखाडकर जा रही है । और महाराव रत्नसिंह अपने सूर्यमुखी झडे को फहराते विजयी राजपूतो के साथ दुर्ग की ओर आ रहे है। मगल-कलश सजे थे । बाजे बज रहे थे, दुर्ग मे प्रत्येक वीर को पुरस्कार मिल रहा था ! मलिक काफूर महाराव की बगल में बैठे थे। महाराव ने कहा-खां साहिब, किले में मेरी गैरहाजिरी मे आपको तकलीफ और असुविधाएं हुई होगी, इसके लिए आप माफ करेगे। युद्ध के नियम सख्त होते है, फिर किले पर भारी मुसीबत आई थी, लडकी अकेली थी, जो बन सका किया। काफूर ने कहा-महाराज, राजकुमारी तो पूजने लायक है, ये इन्सान नही