पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४८

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वीर बादल लेकर किले मे सवाद भेज दिया। मुलह का झण्डा देखकर किले का फाटक खुल गया। दूत भीत मुद्रा से किले में गया। विकटआकृति राजपूत उसे सन्देह और क्रोध से देख रहे थे। उसने राणा भीमसिह की राजसभा मे जाकर विनयपूर्वक यह निवेदन किया कि सुलतान चित्ताड़ के राणा से बराबर की दोस्ती करना चाहते है । उनकी मन्शा न चित्तौड छीनने की है, न महाराणी को हरण करने की । अगर महाराणा अपनी दोस्ती का सबूत दे तो सुलतान अभी दिल्ली को लौट जाए। दोस्ती के सबूत मे सुलतान केवल यह चाहते है कि उन्हे केवल एक बार महाराणी की झलक दिखा दी जाए। और कुछ नही। गर्वीले राजपूतो को दूत का यह प्रस्ताव अत्यन्त अपमानजनक प्रतीत हुआ। उन्होने तलवारे खीच ली, और भाति-भाति के कुवाक्य दूत और सुलतान को कहे। प्रत्येक राजपूत इस अपमान के बदले अपने प्राण देने के लिए तैयार था, पर राणा भीमसिह गम्भीर चिन्ता मे निमग्न थे। उनके ऊपर चित्तीड़ की रक्षा एव हजारो राजपूतो की जीवन-रक्षा का दायित्व था। उन्होने सोचा, क्या सर्वनाश से बचने के लिए यह अपमान सह लिया जाए? उन्होने अपने मन्त्रियो, सरदारो और भाई-बदों से और दरबारियो से परामर्श किया और रानी पद्मिनी से भी सब हकीकत कह दी। रानी ने साहसपूर्वक कह दिया कि यदि मेरा यह अपमान करके वह दैत्य टल जाए तो मै अपनी आबरू का बलिदान देने को तैयार हू, परन्तु प्रत्यक्ष नही, दर्पण मे ही वह पशु मेरी छवि की एक झलक देख सकता है। राणा भीमसिह ने सभासदो को सब ऊच-नीच समझाकर अन्त मे प्रस्ताव की स्वीकृति दे दी। उन्होने यह शर्त की कि सुलतान अकेले निःशस्त्र किले में आएंगे और दर्पण मे महाराणी की एक झलक देखकर तुरन्त लौट जाएगे, तथा तुरन्त ही चित्तौड़ का घेरा उठा लेगे। अलाउद्दीन ने राणा की इस उदारता की बड़ी तारीफ की, और मित्रता की बहुत लम्बी-चौड़ी बातें राणा के पास भेजी। ठीक समय पर वह निशस्त्र, अकेले किले मे आ पहुचा। मुलतान का प्रस्ताव अभूतपूर्व था और वह विश्वासी व्यक्ति न था। किले का प्रत्येक राजपूत इसे अपना जातीय अपमान समझे हुए था। परन्तु राणा अपने विचार पर दृढ़ था। वह गम्भीर और मौन था। आज महलो मे अद्भुत गम्भी-