सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वीर बादल 3 . हो-लाज से सिर नवाए खड़ी है । एक झलक सुलतान ने देखा, और वह झलक दर्पण से गायब हो गई। सुलतान निश्चल हो गया, इस सौन्दर्य की उसने कभी कल्पना भी न की थी। महाराणा ने कपित कण्ठ से कहा-राजपूतों का वचन पूरा हुआ, अब सुलतान को अपना वचन निभाना चाहिए। सुलतान चौका और सोते हुए मनुष्य की भाति उसने कहा-हा, हा, ज़रूर ; अब मुझे आपकी दोस्ती पर यकीन हो गया है । महाराणा, दरहकीकत मै आपको मुबारकवादी देता हू। आपकी महाराणी इन्सान नही है, इन्सान मे इतनी खूबसूरती नही हो सकती। राजपूत धीरज खो रहे थे। राणा ने अधीर होकर कहा-राजपूती मर्यादाको निभाने के लिए, सुलतान जैसे प्रतिष्ठित मेहमान को विदा करने हम बाहर की ड्योढ़ी तक चलेगे, परन्तु सुलतान अपना वचन कब पूरा करेगे ? "मैं अभी अपनी छावनी उठाता हू," सुलतान ने वापस लौटती बार कहा था। वे चुपचाप धीरे-धीरे लौट रहे थे। दोनो चुप थे। राणा उस अपने अपमान की बात सोच रहे थे, जो अभी हो चुका था और सुलतान उस घात की, जो वह अभी करनेवाला था। फाटक आ पहुचा । राणा ने कहा-मै सुलतान के कष्ट करने के लिए क्षमा चाहता हूँ। "नही, नही, माफी मुझे मांगनी चाहिए, क्योकि मैंने आपको बडे भारी तर- दुद में डाल दिया है। मगर खैर, इससे हमारी और आपकी दोस्ती पक्की हो गई। अरे, आप रुक क्यों गए, जरा और आगे चलिए। वहा मेरे आदमी है । मै आपके लिए कुछ सौगात लाया हू, जो आपको बाइज्जत कबूल करनी होगी। आशा है आप इनकार नही करेंगे।" राणा झिझका पर आगे बढ़ा। उसने कहा-आपकी दोस्ती ही मेरे लिए सबसे बड़ी सौगात है। सुलतान ने अत्यन्त आग्रह से कहा-नही, नहीं, अगर आप इनकार करेगे तो मैं समझगा कि आपका दिल मेरी तरफ से साफ नहीं है। फाटक कदम-कदम पर दूर हो रहा था, राणा कुछ कह न सके । एकाएक पठानों का एक बड़ा दल जंगल से निकल आया और बात की बात मे राणा को घेर लिया। राणा तलवार भी न निकाल पाया, उसकी मुश्के कस ली गई। राणा ने .