पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीया चन्द्रनाथ को जीवन का पूर्ण विकास प्राप्त था। उनकी आयु, शिक्षा और परि- स्थिति ने उस विकास को सहायता दी थी। चद्रनाथ जैसे पुरुष अपनी स्त्री को सह- धर्मिणी के रूप में अथवा कम से कम पत्नी के रूप मे अपने सन्मुख देखे बिना कैसे सन्तुष्ट रह सकते थे? परन्तु आनन्दी पत्नी या सहधर्मिणी थी कहा? खास कर चन्द्रनाथ जैसे व्यक्ति की? वह अबोध, अज्ञानी बालिका हठात् विषम पुरुष की स्त्री बनाई गई और फिर हठात् उसे उसकी सहधर्मिणी और पत्नी बनाने के लिए कई अध्यापक, अध्यापिकाए, स्वयं चन्द्रनाथ और बहुत कुछ सरजाम धूम मचाने लगा। उसका जीवन प्रारम्भ था। विवाह और पति, इन दो मधुर शब्दो से यौवन के प्रारम्भ में जो लहरें उठती हैं, वह आनन्दी के मन में उठती थी; स्वाभाविक रूप से भी और सखी-सहेलियो तथा पड़ोसिन समक्यस्काओं के द्वारा उत्तेजन प्राप्त करने पर भी। परन्तु उन लहरों का किनारा तो एकमात्र पति है; वह पति यदि तिल बराबर पति था, तो पहाड़ बराबर बुजर्ग, गुरु और शासक था। वह रत्ती भर यदि सखा था तो मन भर अधिकारी था ! जैसे वासन्ती वायु अपने झोको से कली को खिलाती है और दोपहर की धूप का प्रखर तेज उसे मुरझाकर झुलसा देता है, उसी प्रकार आनन्दी की दशा थी। चन्द्रनाथ एक चुटीले हृदय के पुरुष थे। उनकी जीवन-सगिनी छिन चुकी थी, जिसके साथ उन्होने अपने नवीन यौवन के उल्लास और विकास के साथ यह प्रौढ़ पद प्राप्त किया था। उसकी मृत्यु के तत्क्षण बाद वे आतुर होकर एक स्त्री-शरीर के लिए विकल हो उठे। तब तक वे स्त्री-शरीर और पत्नी एव समिणी में क्या अन्तर है, यह समझे न थे। अब पुराने शरीर की जगह नया शरीर, ढले यौवन की जगह उठता यौवन, विषाद की जगह उल्लास उन्हे मिला। पर नहीं मिली पत्नी, सहधर्मिणी, जीवन-सगिनी। उसे खोकर अब वे इतने दिन बाद जाग- रित हुए। तारों से भरी रात थी। बड़े परिश्रम से थकित चन्द्रनाथ बाहर से आए थे। घर मे देखा, आनन्दी बेसुध पड़ी सो रही है ; चन्द्रनाथ सोचने लगे, मेरा तो अभी भोजन भी नहीं हुआ, यह सो गई। एक वह थी, जो ऐसी अवस्था में रात्रि भर खड़ी प्रतीक्षा करती थी। पत्नी और सहधर्मिणी बनने के लिए स्त्री को कितनी तप- स्विनी, कितनी साध्वी, कितनी इन्द्रिय-विजयिनी बनने की आवश्यकता है-अब उन्होंने इसपर गम्भीर विचार किया।