पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विधवाश्रम इस कहानी में बहुत तीव्र व्यंग्य और असन्तोष की भावना में लेखक ने 'विधवा- श्रमों के भीतर कुत्सित जीवनों का भण्डाफोड किया है जिनकी स्थापना आर्यसमाज ने उसकी अत्यन्त आवश्यकता समझकर की थी; और वे अन्त में सच्चे अर्थों में कुहनखाने बन गए । लेखक को कुछ दिनो तक बिल्कुल निकट से ऐसी संस्थाओ को देखने का अवसर मिला हे इसलिए उनके ये रेखाचित्र काल्पनिक नही सच्चे है। एक गन्दी और तग गली के भीतरी छोर पर, पुराने पक्के दुमंजिले मकान के भीतरी हिस्सो मे, एक कोठरीनुमा कमरे में चार मूर्तिया एक टेबिल पर बैठी धीरे- धीरे बाते कर रही थी। यह मकान वास्तव में विधवाश्रम था और यह मनहूस कमरा था उसका दफ्तर। टेबिल पर कुछ मैले रजिस्टर, पुरानी पुस्तके, दो-एक साप्ताहिक पत्र, कुछ कागज़ और कुछ चिट्ठिया अस्त-व्यस्त पड़ी थी। चारो व्यक्तियो मे जो प्रधान पुरुष थे, उनकी उम्र कोई पचास वर्ष की होगी। उनका रग कतई ताबे की भाति, चेहरा साहबनुमा सफाचट, बदन गठीला, कद ठिगना, चाल बिजली के समान, दृष्टि साप के समान थी। हृदय कैसा था, इसका भेद वह जाने जो वहा की सैर कर आया हो। आप विशुद्ध खद्दर पहनते थे और किसीको सम्मुख देखते ही मुस्कराकर तिरछी गर्दन करके दोनो हाथ जोडकर नमस्ते करते थे। आपका असली और पुराना नाम तो था सुखदयाल, परन्तु आप बहुतायत से डाक्टर साहब के नाम से ही पुकारे जाते थे। आपने कब, कहा और कितनी डाक्टरी पढ़ी, यह जानने का अब कोई उपाय नही। एक युग हो गया तभी से आपका यह नाम पेटेण्ट हो गया है । सुना है, बहुत दिन हुए-आप किसी गुरु- कुल मे कम्पाउण्डर थे। वहा के रसोइए, कहार और कोई-कोई ब्रह्मचारी भी आपको डाक्टर ही कहकर पुकारते थे, तभी से आपका यह नाम पड़ गया। २३५