पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२३२

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विधवाश्रम २३७ मे कुछ काट-छाट कर रहे थे। उन्हे आश्रम से तीस रुपये महीना वेतन भी मिलता था। बेचारों के ऊपर रात-दिन का, आश्रम और उसमे रहनेवाली स्त्रियो की रक्षा का असह्य भार था। विवश उन्हे रात को भी नौकरी से फुर्सत नही मिलती थी, हालाकि आप बहुत कुछ शिकायत किया करते थे। पर इस गैर-फुर्सती मे आप कितने खुश थे, सो भगवान जानता है । ये एक तौर से इस मंडली मे गुड़ के चिउटे हो रहे थे। इनका नाम था गजपति । + इनकी बगल मे लाला जगन्नाथ बैठे थे। इनका स्याहफाम चेचक से गुदा मुह, भद्दी-सी आंखे, नाटा कद और बात-बात मे सनक-सी उठना-इनके व्यक्तित्व को सबसे पृथक् कर रहा था। आपकी उम्र पचास के लगभग थी । आप मुख पर गम्भीरता और भक्ति-भाव लाने के लिए जो चेष्टा प्राय किया करते थे, उससे ऐसा प्रतीत होता था, मानो आप अभी रो पडेगे । शायद इसी चेष्टा के फलस्वरूप आपका होठ नीचे को लटक गया था और चेहरा कुछ लम्बा हो गया था। लेख को ठीक करा डाक्टर जी बोले-बस, अब हिसाब मे जो थोडी-सी भूल है, उसे तुम ठीक कर-करा लेना। परन्तु सुनो, कल ही तो अन्तरग मीटिग है । सब कागजात आज ही रात को तैयार और साफ हो जाने चाहिए। पीछे का बखेडा रहना ठीक नहीं। "बहुत अच्छा ! परन्तु वे दो सौ रुपये, जो कुन्ती की शादी मे वसूल हुए हैं, किस मद मे डाले जाएं ?" "किसीमे भी नही, अभी उनकी बात छोडो, उनका हिसाब मै पीछे दूगा। तुम्हे अपना हक तो मिल गया न ?" "कहां, सिर्फ पच्चीस मिले है।" "तब यह लो पाच और, यह हिसाब तो साफ हुआ। आप लोगो को भी तो इस विवाह का हिस्सा मिल गया है ?" दोनो अन्य पुरुषों ने भी स्वीकृति दे दी । इसपर डाक्टर जी कुछ कहना चाहते थे कि एक वृद्ध स्त्री ने द्वार मे घुमकर मूर्ति-चतुष्टय को धरती में माथा टेककर प्रणाम किया। मजपति ने कहा-माई, क्या है ? "महाशय जी ! मेरी यह फुफेरी बहिन की लड़की है। बेचारी बाल-विधवा ।