पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/२४३

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२४८ विधवाश्रम "वाह, आश्रम तो आप ही की सस्था है, वह यह भार कैसे उठा सकती है ? सोचिए तो।" वर महाशय ने जरा गुनगुने होकर बिल चुका दिया और कहा-अब आप जरा जल्दी कीजिए, गाडी के जाने मे वक्त बिल्कुल नही रहा है । "बस, अब विलम्ब कुछ भी नही है । विवाह आपका शुभ हो।" इसके थोड़ी देर बाद ही वर-वधू विदा हुए। वधू ने हस-हंसकर सबसे हाथ मिलाए। किसी-किसीसे घुस-फुस बाते की और पतिदेव के साथ खट से कूदकर तागे पर चढ़ गई। यह असल वैदिक विवाह का प्रताप था कि वधू लेई नही, चिल्लाई नही, चूघट . किया नहीं, शर्माई नही । बोलो वैदिक धर्म की जय !! "कहिए, आपका क्या काम है ?" "मुझे आपसे एकान्त मे कुछ कहना है।" "यहा एकान्त ही है, नि संकोच कहिए। इन लोगो से कुछ छिपा नही।" "आपसे मै एक सहायता लेना चाहता हूं।" "कहिए भी, क्या सहायता?" "एक लडकी का उद्धार करना है।" "कहा से? "वेश्या के घर से।" "वह लड़की कौन है ?" "उसी वेश्या की कन्या।" "आप क्यो उद्धार किया चाहते है ?" "वह वहा रहना और कुकर्म कराना नहीं चाहती। उसकी मा उसे मजबूर क रही है, पर वह पसन्द नही करती।" "वह क्या चाहती है ?" "किसी भले आदमी से ब्याह करना चाहती है। "वह भले आदमी शायद आप हैं ?" "जी नहीं, मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता। आप जानते हैं, जात-बिरादरी क मामला है।"