बावर्चिन
इस कहानी में अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के पतनकाल का और मुगल बेगमों के आंसुओं का, जो कभी केवल हीरे-मोती, इत्र और ऐश्वर्य ही को जानती थी, ऐसा सचोट रेखाचित्र है, जो हृदय में घाव कर जाता है। साम्राज्यों के पतन में विश्वासघातियों का सदा हाथ रहा है। इसमें भी एक ऐसे ही विश्वासघाती का संकेत किया गया है जिसके बड़े-बड़े वर्णन मुगलतख्त के पतनकाल में इतिहास में पाए गए है।
सन् १८४५ की २८वी मई के तीसरे पहर एक पालकी चांदनी चौक में होकर लालकिले की ओर जा रही थी। पालकी बहुमूल्य कमख्वाब और ज़री के पर्दों से ढ़की हुई थी। आठ कहार उसे कंधों पर उठाए थे और सोलह तातारी बांदियां नंगी तलवार लिए उसके गिर्द चल रही थी। उनके पीछे चालीस सवारों का एक दस्ता था, जिसका अफसर एक कुम्मेत अरबी घोड़े पर चढ़ा हुआ था। उसकी ज़रबफ्त की बहुमूल्य पोशाक पर कमर मे नाजुक तलवार लटक रही थी, जिसकी मूठ पर गंगाजमुनी काम हो रहा था। उसकी काली घनी दाढ़ी के बीच, अंगारे की तरह दहकते चेहरे में मशाल की तरह जलती हुई आखें चमक रही थीं, जिन्हें वह चारों तरफ घुमाता हुआ, अकड़कर, किन्तु खूब सावधानी से, पालकी के पीछेपीछे जा रहा था।
भयानक गर्मी से दिल्ली तप रही थी। तब चांदनी चौक की सड़कें आज की जैसी तारकोल बिछी हुई आईने की तरह चमचमाती न थीं, न मोटरों की घोंघोंपोंपों और सर्राटेबन्द दौड़ थी। चांदनी चौक की सड़कों पर काफी गर्दगुब्बार रहता था। हाथी, घोड़े, पालकी और नागौरी बैलो की जोड़ी से ठुमकती हुई बलिया एक अजब बांकी अदा से उछला करती थी।
अब जिस स्थान पर घण्टाघर है, वहां तब एक बड़ा-सा हौज़ था, जो चांदनी
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