पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/३४

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बावचिन खाना खाने से सभी खुश हुए। नई बावचिन की तारीफ के पुल बाधने लगे। दोस्तों ने कहा-जरा उसे बुलाइए और इनाम दीजिए। इलाहीबख्श ने बावचिन को बुला भेजा। उसने कहा-आका से दस्त-बस्ता अर्ज़ है कि मै गैर मर्दो के सामने बेपर्दा नहीं हो सकती। हा, आका से पर्दा फजूल है। दोस्त लोग मन मारकर रह गए। मगर इलाहीबख्श के मन मे प्रतिक्षण बावचिन को देखने की बेचैनी बढ चली। एकान्त होने पर उन्होने उसे बुला भेजा। बावचिन ने जवाब दिया-मेरे मिहरबान मालिक ! सफर, मिहनत और भूख से बेदम तथा कपड़ो से गलीज हू-खिदमत में हाजिर होने के काबिल नही । इलाहीबख्श स्वय भीतर गए और बावचिन के सामने जा खड़े हुए। बोले- क्या मै तुम्हारी मुसीबत की दास्तान सुन सकता हूं? यह तो मैं समझ गया कि तुम शरीफ खानदान की दुखियारी हो। बावचिन ने अच्छी तरह अपना बुर्का ओढ़कर कहा--मालिक ! मेरी कोई दास्तान ही नही! "क्या मुझसे पर्दा रखोगी?" "यह मुमकिन नहीं है।" "तब?" "क्या आप मुझे देखना चाहते है ?" "जरूर, जरूर!" वह मैला और फटा बुर्का चम्पे की-सी उंगलियो ने हटाकर नीचे गिरा दिया। एक पीली किन्तु अभूतपूर्व मूर्ति, जिसके नेत्रों में पानी और होंठों में रस था, सामने दीख पड़ी। इलाहीबख्श ने आंखो की धुन्ध आंखों से पोंछकर जरा आगे बढ़कर कहा- तुम्हें, आपको, मैंने कही देखा है ! "जी हां, मेरे आका ! शेरे दादाजान की मिहरूबानी से, लालकिले के भीतर जब आप मेरी डोली में लगाए जाने के लिए चाबुको से लहू-लुहान किए गए थे, तब यह बदनसीब गुलबानू आपको तसल्ली देने तथा और भी कुछ देने आपकी खिद- मत में आई थी। उम्मीद थी, मर्द औरत की अमानत--खासकर वह अमानत, जो दुनिया की चीज़ नही, जिसके दाम जान और कुर्बानी हैं--सभालकर रखेंगे। पर पीछे यह जानने का कोई जरिया न रहा कि हुजूर ने वह अमानत किस हिफाजत