पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/४७

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४७ परीक्षा हो गई न?" "आशातीत ! तुम्हारे जैसे अन्यमनस्क शिष्य से मुझे इतनी आशा न थी। सभी कहते थे कि कुमार लक्ष्य-वेध न कर सकेंगे। तुम अभ्यास ही कब करते थे ! परन्तु आज तुम्हारा हस्त-लाघव देखकर मैं गद्गद हो गया। कुमार ! मैं धन्य हुआ। तुम शाक्यवंश के दीपक होगे। मैं भविष्यवाणी करता हूं-तुम अप्रतिम योद्धा वृद्ध पुरुष' कुमार के कन्धे पर स्नेह से हाथ रखकर उपर्युक्त वचन कह रहे थे। कुमार ने बीच में ही बात काटकर कहा-आर्य ! पुरजन फिर तो मेरी परीक्षा का हठ न करेंगे?" "कभी नहीं, वे पूर्ण सन्तुष्ट हैं । सर्वत्र ही तुम्हारी अप्रतिम शस्त्रकला की चर्चा हो रही है। पर तुम क्या विशेष थके हुए हो?" "तनिक भी नहीं।" "तब यह एकान्त-सेवन क्यों ? यह गम्भीर चिन्तन क्यो? और यह विषण्ण मुखमुद्रा क्यो?" "आर्य अत्यन्त स्नेह के कारण ऐसा विचार करते हैं। परन्तु 'अरे ! महा- मात्य इधर ही आ रहे है-आर्य, हमे आगे बढ़कर अमात्यवर का अभिवादन करना चाहिए।" दोनो व्यक्ति वायु-मण्डप के द्वार तक बढ आए। महामात्य ने हसकर कहा- आयुष्मन् ! आज तुम आखेट मे विजय प्राप्त कर आए। इस समाचार से अन्त:- पुर में विशेष उल्लास हो रहा है। महिषी की इच्छा है कि आज सभी राजकुमा- रिया समुपस्थित है, कुमार उन्हे अपने हाथो से रत्न-भाण्ड प्रदान कर उन्हे प्रति- ष्ठित करें। कुमार ने सलज्ज भाव से कहा-माता की जैसी आज्ञा । तीनों व्यक्ति धीरे- धीरे प्रासाद की ओर चल दिए। उषा की अलौकिक रश्मि-रेखा की तरह सबके अंत में कोलराजनन्दिनी यशोधरा ने कक्ष मे प्रवेश किया, मानो उन्हें देखते ही कुमार सिद्धार्थ का चिर- निद्रित यौवन जागरित हो उठा। वे धीरे-धीरे सौरभ, आलोक और शोभा बखे- रती हुई व्यास-पीठ तक पहुंचकर कुमार के सम्मुख खड़ी हो गई। वे सिमट