पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/५५

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प्रबुद्ध मानव-जीवन की इस कठिन व्याधि का उपाय जानता हो । राजकुमार एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठकर जीवन, मरण और उत्पत्ति के विचार में मग्न हो गए। उस अभेद्य अन्धकार मे मानो उनके दिव्य चक्षु खुल गए। उनसे उन्होंने देखा : ससार को सुख दुखदायी, मृत्यु अनिवार्य और भवितव्य है, पर यह जानकर भी लोग अज्ञान के अन्धकार मे ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और सत्य की खोज नही करते । कुमार का हृदय अगाध दया से भर गया। हठात् राजकुमार ने देखा, सम्मुख वृक्ष के नीचे एक गम्भीर महापुरुष खड़े है । कुमार ने पूछा--तुम कौन हो? और कहा से आये हो? "मैं श्रमण हूं, बुढ़ापे के दुखों और रोगों की पीड़ा तथा मृत्यु के भय से मैं घर-द्वार का परित्याग करके निकला हूं; मैं मुक्ति का अन्वेषक हूं, क्योंकि संसार के सब पदार्थ नष्ट हो जाते है। केवल सत्य ही सदा साथ रहता है। प्रत्येक वस्तु बदलती रहती है, कोई पदार्थ स्थिर नही है । मैं अक्षय आनन्द को चाहता हूं, मैंने ससार त्याग दिया है । मैं भिक्षा मांगकर खा लेता हूं। मैंने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, मै अपने उद्देश्य में तत्पर हूं।" "मैं भी इन्द्रियों के विषयो की निस्सारता को अच्छी तरह समझ गया हूं। मुझे भोग से घृणा हो गई है । मेरा जीवन मुझे शून्य दीखता है। क्या तुम कह सकते हो कि इस अशान्त जगत् मे कही शान्ति मिल सकती है ?" "जहा उष्णता है वहा शीतलता भी है। पर महान सुख के लिए महान परि- श्रम भी करना होगा। पापविद्ध व्याकुल आत्मा को उस कल्याण-मार्ग का शोध करना चाहिए जो निर्माण की ओर जाए। निर्वाण-सरोवर मे स्नान करने से सारे पाप धुल जाएगे।" “आह ! तुम्हारा समाचार शुभ है। मेरे पिता और पत्नी मुझे राजकाज में लगाना चाहते है। वे घराने की कीर्ति के इच्छुक है, वे कहते है कि यह समय धर्मजीवी बनने के लिए उपयुक्त नही।" "आह, यही समय है जब मोह का अन्धकार आत्मा पर छाया हुआ है।" "महाश्रमण ! धर्मान्वेषण का समय आ गया, मैं उन सब बन्धनों को तोड़े डालता हूं, जो धर्म-प्राप्ति में बाधक है।" राजकुमार ने एक बार उच्च अट्टालिका की ओर देखा। श्रमण ने कहा- कुमार सिद्धार्थ ! तुम्हारी जय हो ! तुम महान हो! तुम तथागत हो ! देखो,