पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/७८

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भिक्षुराज ७९ सुख-नीद सो रहा था, और भक्तों में जो-जो सुनते थे, एकत्र होते जाते थे, और चार आंसू बहाते थे। वह आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी थी, जब भिक्षुराज महेन्द्र ने जीवन समाप्त किया। उस समय यह महापुरुष अपने भिक्षुजीवन का साठवा वर्ष मना रहा था, उसकी आयु अस्सी वर्ष की थी। उसने अड़तालीस वर्ष तक लंका मे बौद्ध- धर्म का प्रचार किया। उस समय महाराज तिष्य को मरे आठ वर्ष बीत चुके थे। उसके छोटे भाई उत्तिष्य ने, जो अब राजा था, जब इस महापुरुष की मृत्यु का सवाद सुना तो वह बालक की तरह रोता और बिलखता हुआ उस पवित्र पुरुष के गुण-गान करता दौड़ा। राजा की आज्ञा से भिक्षुराज का शव सुगन्धित तेल में रखकर एक सुनहरे बक्स में बन्द कर और अनेक सुगन्धित मसालो से भर दिया गया। फिर वह एक सुनहरे शकट पर, बड़े जुलूस के साथ, अनुराधपुर लाया गया। समस्त द्वीप के अधिवासियो और सैनिको ने एकत्र होकर इस महाभिक्षुराज के प्रति अपनी श्रद्धाजलि भेंट की। राजधानी की गलियो से होता हुआ जुलूस अन्त मे पनहंबमाल के विहार में जाकर रुका, जहां वह शव सात दिन रखा रहा । राजा की आज्ञा से विहार से पचीस मील तक चारों ओर का प्रदेश तोरण, ध्वजा, पताका और फूल-पत्तो से सजाया गया। इसके बाद शव चन्दन की चिता पर रखा गया और राजा ने अपने हाथ से उसमें आग लगाई। जब चिता जल चुकी तो राजा ने राख का आधा भाग चैत्य-पर्वत पर, महि- तेल में ले जाकर गाड़ दिया, और शेष आधा समस्त विहारो और प्रमुख स्थानों में गाड़ने को भेज दिया। इस प्रकार अब से बाईस सौ वर्ष पूर्व वह महापुरुष असाधारण रीति से जन्मा, जिया और मरा । लका द्वीप को इस महापुरुष ने जो लाभ प्रदान किया, वह असाधारण था। उसने यहा की भाषा, साहित्य और जीवन मे एक नवीन सभ्यता