पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/८८

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आचार्य उपगुप्त ८६ "जैसी प्रभु की इच्छा होगी, वही होगा।" "नही-नही, कदापि नही । तब मुझे स्वय यह कार्य करना होगा।" "नही, राजकुमार मुझे अधम न बनाइए !" "देवि ! और कोई उपाय नही है, फिर यो मुक्त होने पर श्रेष्ठिवर कुछ न कुछ उपाय मुझे मुक्त करने का कर ही लेगे। और यह तो मै स्वय कर रहा हूँ। सोचिए तो, श्रेष्ठिवर को वहा कितना कष्ट और वेदना होगी !" कुन्द व्यथित और खिन्न-सी कुमार की ओर देखती रही। कुमारी ने कहा-लल्ल ! तब तुम यह सन्देश राजद्वार पर ले जाओ और नगराध्यक्ष को बुला लाओ। लल्ल ने प्रस्थान किया । कुन्द ने बहुत बाधा दी। कुछ ही क्षण मे सैनिको- सहित नगराध्यक्ष ने आकर कुमारी को बाध लिया और दस तोड़े वहीं गिनकर उसे ले चले। कुन्द और महारानी दोनो पछाड खाकर गिर पड़ी। "किस महोदय ने इतनी कृपा की कुन्द ? धन्य है वह प्रभु ! परन्तु हा, अति- थियों का ठीक सत्कार तो हुआ? ओह ! तुम्हारा मुह इतना सफेद क्यो हो रहा है ? कुन्द ! तुम इतनी दुःखी क्यो ? अरे ! रोने लगी।" कुन्द बिना बोले पति चरणो मे गिरकर जोर-जोर से रोने लगी। उपगुप्त ने कहा-कुन्द ! अब इतना दु ख क्यो ? तुम उस कृपालु मित्र का नाम तो बताओ। में तनिक उसे धन्यवाद तो दे आऊ।-कुन्द ने रोते-रोते सब घटना बयान कर मानो सहस्र बिच्छुओ ने दश किया। उन्होने तडपकर कहा-क्या कहा ? कुमार को पकड़ाकर यह धन प्राप्त किया ? कुन्द निरुत्तर रही। "कुन्द ! कुन्द ! यह पातक तुमने किया ? मेरा जन्म, जीवन, यश, धर्म- सभी नष्ट किया । कुन्द ! तुम ऐसी थी? यह तो आशा न थी। हाय ! बडाअधर्म हुआ !" इतना कहकर श्रेष्ठिवर विकल हो, इधर से उधर टहलने लगे। लल्ल ने धीरे-धीरे कक्ष मे प्रवेश करके कहा-श्रेष्ठिवर ! कुमार ने स्वेच्छा से यह कार्य किया है, कुन्द का इसमे तनिक भी अपराध नहीं। ये तो अन्त तक सहमत न हुई थी। उपगुप्त ने रोते-रोते कहा-महानायक ! अब क्या होगा? मैं कैसे इस पातक